क्या कभी आपने टीवी पर आने वाला एक विज्ञापन देखा, शायद किसी रिफाइण्ड तेल का विज्ञापन था। हमारे आपके परिवार की तरह ही लोग घर पर बैठकर खाना खा रहे थे। सारे लोग शांत थे की अचानक पति ने कहा की तुम्हारे हाथ का खाना माँ के हाथ से बने खाने से बेहतर है ? पति इतना कहकर चुप हो जाता है। माँ भी उसी टेबल पर मौजूद थी और चुप थी लेकिन पत्नी को होठों पर एक न छुप सकने वाली मुस्कान तैर गयी। अंत में पंच लाइन आती है कभी कभी सच बोलना भी अच्छा होता है। अब सवाल ये है के हम लोग सच क्यों नहीं बोलते? की हाँ भई आज तो कमाल का खाना बना है हम माँ के हाथों के खाने को जिस तरह से लेते हैं और तारीफ़ भी करते हैं की माँ के हाथ के बने मूली के पराठों का तो जवाब नहीं है भई। लेकिन उसकी जगह कोई और जगह नहीं ले सकता चाहें वो कितना भी बेहतर हो। एक विज्ञापन आता है छोले मसाले का बच्चे के बापू पूंछते हैं किसने बनाया मिसेज शर्मा ने? बच्चे करीब करीब खुशीसे कूदते हुए कहते हैं मम्मी ने बनाया है। लेकिन बापू कुछ भी नहीं बोलते,मुद्रा जरूर बना लेते हैं की हाँ जो भी है ठीक है, भारतीय परिवारों में ये बात अक्सर देखने में आती है की हम तारीफें कभी नहीं करते खास तौर पर अपने घरों की, घर की दाल खाओ बाहर की बिरयानी नहीं, इसी विषय पर फिल्म मस्ती भी बन चुकी है और कबीर दास जी भी कह चुके हैं देख परायी चुपड़ी मत ललचावे जीव। लेकिन घर में खाकर तारीफ़ क्यों नहीं होती ये एक बड़ा मुद्दा है? मुझे जवाब की तलाश है क्या आपने तारीफ करते कभी देखा है ?
आशु प्रज्ञा मिश्र
माखन लाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल
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