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Wednesday, April 28, 2010
आईपीएल,ललित मोदी और विवाद
अगर जगमोहन डालमिया ने क्रिकेट को एक आसानी से बिकने वाला ब्रांड बनाया तो ये ललित मोदी है थे जिन्होने क्रिकेट की लोकप्रियता को पैसे मे बदलकर आईपीएल के खजाने मे मात्र तीन सालो मे 2 बिलियन डालर जमा करा दिये ....
मोदी के दादाजी राजा बहादुर गुजरमल की गिनती देश के प्रसिद्ध उधोगपतियों मे होती है जिन्होने मोदी ग्रुप आफ इंडस्ट्री की स्थापना की थी. मोदी ग्रुप आंफ इंडस्ट्रीज के अंतर्गत मोदी सुगर,मोदी वनस्पति,मोदी पेंटस,मोदी आयल,मोदी स्टील,मोदी सिपिंग एण्ड विभिंग,मोदी साप एण्ड मोदी कारपेट कंपनी आती है .राजा बहादुर की तीन संताने थी कृष्ण कुमार मोदी,भूपेंद्र कुमार मोदी,और विनय कुमार मोदी.कृष्ण कुमार मोदी की तीन संताने थी चारू मोदी भाटिया,ललित मोदी, और समीर कुमार मोदी. अमेरिका के नार्थ करोलिना में ड्रग्स और अपहरण मे सजा काटने के बाद भारत आये मोदी ने अपने पिता के के मोदी के व्यवसाय को संभाला लेकिन मोदी का इसमे मन नही लगा, 90 दशक के शुरूआत मे जब केबल और सेटेलाइट प्रसारण का व्यवसाय तेजी से पांव पसार रहा था मोदी ने इस व्यवसाय के नब्ज को पहचान कर मोदी एंटरटेनमेन्ट नेटवर्क (मेन) की स्थापना की1.1993 मे मेन ने भारत मे व्यवसाय को बढ़ाने के लिए अमेरिकी की प्रसिद्ध कंपनी वाल्ट डीजनी से10 साल का समझौता किया. समझौते के अनुसार जहां इस व्यवसाय मे वाल्ट डीजनी के 51 प्रतिशत शेयर थे वही बाके बचे शेयर मेन के हिस्से मे आये.. इन दोनो कंपनी ने 10 साल के समझौते के शुरूआत दौर मे 30 से 40 करोड़ रूपये मार्केट से कमा लिये..1995 मे वाल्ट डिजनी ने अपनी सिस्टर कंपनी ईएसपीएन के भारत मे वितरण के लिए मेन से समझौते किये ताकि इएसपीएन को केबल पर पेड स्पोर्टस चैनल बनाकर क्रिकेट के दर्शकों से भरूपर पैसे कमाया जा सके और ऐसा ही हुआ .इएसपीएन भारत मे चुनिंदा पेड चैनल मे से एक था.कुछ ही समय मे इएसपीएन भारत मे ज्यादा देखे जाने वाले स्पोर्टस चैनल के रूप मे मशहूर हो गया.. 2001-02 आते आते मेन खेल प्रसारण वितरण के जरिये 70 करोड़ रूपये कमाने मे कामयाब रहा..लेकिन मोदी इस धंधे को आगे ले जाने मे असफल रहे और ऐसा कहा जाना लगा कि मेन के किसी दूसरे कंपनी के समझौते का अंत कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ही खत्म होता है यानि किसी भी दूसरी कंपनी के साथ व्यवसायिक समझौता ज्यादा सौहार्दपूर्ण वातावरण मे समाप्त नही हुआ.मेन ने डीडी स्पोर्टस के साथ भी खेल को लेकर व्यवसायिक समझौते किये लेकिन कहा जाता है कि यह मामला अभी तक कोर्ट मे ही पड़ा है...2004 तक आते आते मोदी की मेन कंपनी की हालत पतली हो गयी है और इसके कर्मचारियों को सैलरी के भी लाले पड़ गये. मुंबई छोड़कर बाकी जगह पर स्थित मेन कंपनी के कार्यालय बंद हो गये.2007 मे मोदी ने आखिरी दाव लगाया . मोदी ने ट्रेवल व लिविंग चैनल की तर्ज पर पहले चैनल वोएजेस को लांच करने का प्लान बनाया .हालांकि यह योजना धरी रह गई.जाहिर है कि मोदी तभी सफल होते है जब उन्हे खुले हाथ काम करने को मिले.साझेदारी या परिवार की कंपनियों मे वो सफल नही रहे.लेकिन जब राजस्थान क्रिकेट एसोसिएसन और बाद मे आईपीएल अपने दम पर चलाने का मौका मिला तो ललित मोदी ने अपनी कार्यकुशलता से आईपीएल के खजाने को पैसे और शोहरत से भर दिया..लेकिन व्यवसाय का नियम है कि आपको पारदर्शिता के साथ परिवारवाद के नीतियों से दूर रहना होगा और मोदी यहां असफल रहे . किसी भी सही चीजो का शौकीन होना कोई बुरी बात नही है लेकिन जनता की भावना किसी चीज मे जुड़ी है और उसकी भावनाओं का जब आप अपने लिए इस्तेमाल करते है तो उसका अंजाम भी गलत होता है.....मोदी ने अपने आईपीएल कमिश्नर पद के दौरान अपने साढ़ू सुरेश चेलाराम को राजस्थान रायल्स मे 44 प्रतिशत शेयर दिलवाये.दामाद गौरव वर्मन की कंपनी को मोबाइल,बेवसाइट आदि को ठेका भी मनमाने दाम मे बेचा..
मोदी के बारे मे कहा जा सकता है ---He is a men with great ideas but execution has always been his weakness…..
Tuesday, April 27, 2010
अक्षय को मदद चाहिए....
- लेखक : अतुल पाठक, 25-Apr-10
बात अक्षय की जो एक बीमारी से पीडित है। बीमारी ने उसे ऐसा जकड़ा कि इलाज में पिता की जीवन भर की पूंजी खर्च हो गई इसके बाद भी वो ठीक नही हुआ क्योंकि तब तब इस बीमारी की सही थेरेपी नही आई थी। अब जबकि बीमारी के इलाज की कारगर पद्धति आ गई है पिता के पास बेटे के इलाज के लिए पैसे नही है। यदि समय पर इलाज नही मिला तो युवक का जीवन बचाना मुश्किल होगा।
नाम अक्षय कत्यानी हटटा कटटा गबरू जवान 70 किलो वजन दिखने में स्मार्ट, लेकिन एक बीमारी ने उसे 40 किलो का हाडमांस का पुतला बना दिया । पढाई पूरी की तो टीवी जर्नलिस्ट बन गया लेकिन इस बीमारी के कारण नौकरी छोडनी पड गई और बिस्तर पकड लिया। प्रायवेट बिजनेस करने वाले पिता सुधीर कात्यानी ने बेटे के इलाज के लिए अपने जीवन भर की कमाई खपा दी। गाड़ी बंगला बेच दिया। लेकिन वो ठीक नही हुआ। अब अचानक डाक्टरों ने बताया कि इस बीमारी का कारगर इलाज आ गया है। सिर्फ दो लाख खर्च होंगे। लेकिन अब जबकि वो दाने - दाने को मोहताज हो गए हैं। बेटे के इलाज के लिए दो लाख कहां से लाएं तो क्या इकलौते जवान बेटे को यूँ ही हाथ से चले जाने दे।
मजबूर पिता क्या करे? मदद के लिए सबने हाथ खडे कर दिए हैं। बेटे को अल्सरेटिव्ह कोलाईटिस है। खून की उल्टी दस्त होते हैं। खाना खाते नही बनता। कैंसे माँ - बाप अपने जिगर के टुकडे को तिल - तिल मरते देखें। एक तो बीमारी दूसरा मां - बाप की बेबसी बेटे से देखी नही जाती वो भी ऐंसी जिंदगी से निराश होता जा रहा है। आखिर क्या करे वो कहां जाए। उसकी भी इच्छा है कि मां-बाप के सपनो को पूरा करे। अभी तो पूरी जिंदगी पडी है उसके सामने। सिर्फ दो लाख के पीछे क्या जान जली जाऐगी उसकी। फिलहाल पैसे के अभाव में इलाज रूका है। क्या इस नौजवान को हम दुनिया से विदा हो जाने दें। ऐसे समय में समाज को सामने आना होगा। इस नौजवान की मदद के लिए आईए और इसकी मदद कीजिए। रोशन कीजिए अक्षय की दुनिया को जी लेने दीजिए एक जवान को अपनी पूरी जिंदगी ।
(अतुल पाठक , संपर्क : atul21ap@gmail.com_)
यदि आप अक्षय की कोई मदद करना चाहते हैं तो इन नम्बरों पर संपर्क कर सकते हैं :
योगेश पाण्डेय - 09826591082,
सुधीर कत्यानी (अक्षय के पिता) - 09329632420,
अंकित जोशी (अक्षय के मित्र) - 09827743380,09669527866
जब भोपाल भर के पत्रकार इस साथी की हालत को लेकर निद्रामग्न थे....एक चैनल के पत्रकार की स्टोरी को उस क्षेत्रीय चैनल ने ड्रॉप कर दिया....तब सीएनईबी के भोपाल संवाददाता ने इस ख़बर को न केवल कवर किया....बल्कि चैनल ने अपने नैतिक दायित्व को भली भांति निभाते हुए इस मार्मिक व्यथा गाथा को अपील के साथ प्रसारित किया...जिसका असर भी दिखना शुरू हो गया है....सीएनईबी न्यूज़ के संवाददाता...से....सम्पादक तक सभी इसके लिए बधाई के पात्र हैं.....
Sunday, April 25, 2010
आईपीएल...इंडियन पावर्टी लीग....
हजारों करोड़ की बातें हो रही है। लाखों करोड़ के सौंदे हो रहे हैं। करोड़ों रुपए के एडवांस इनकम टेक्स भरे जा रहे है। चियरगर्ल्स नाच रही है। देर रात तक पार्टियां हो रही है। प्राइवेट जहाज उड़ रहे है। टीवी चैनलों पर पैसे की बारिश हो रही है। मल्टीप्लेक्स सिनेमा की जगह बड़े पर्दे पर डिनर के साथ क्रिकेट के मैच दिखा रहे हैं।
मगर यह सब मध्य प्रदेश में ओरछा के पास के गांवों या टीकमगढ़ जिले में नहीं हो रहा। यहां भूख पांव पसार रही है और पारा पचास को छू रहा है। धरती पत्थर हो रही है और किसी मोदी, किसी थरूर, किसी माल्या, किसी पवार, किसी पटेल को परवाह नहीं है कि इस जगमगाते हुए इंडिया में एक भारत भी बसता है जिसमें सरकारी आंकड़ों के हिसाब से ही बत्तीस करोड़ से ज्यादा ऐसे लोग हैं जो गरीबी की रेखा के नीचे रहने पर अभिशप्त है।
यह रेखा भी भारत के लिए इंडिया ने खींची है। असली आंकड़े क्या हैं यह कोई नहीं जानता। गरीब जब आंकड़ा बन जाते हैं और उनकी भूख को कंप्यूटर में फीड कर दिया जाता है तो वहां से जो प्रिंट आउट निकलता है उसमें झूठ के कई धब्बे होते हैं। टि्वटर पर चटर पटर करने वाले इस प्रिंट आउट को खोल कर भी नहीं देखते क्याेंकि साहब को गम बहुत हैं मगर आराम के साथ। या दूसरी कविता मेंं कहे तो काजू भुने प्लेट में, व्हिस्की गिलास में/ उतरा है रामराज विधायक निवास में। यह जो गरीबी की सीमा रेखा है उसके बारे में दावा किया जा रहा हे कि देश की दस प्रतिशत आबादी पिछले दस साल में लटक कर इसके ऊपर आ गई है। इसका मतलब क्या है?
भारत सरकार के सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रिन्यावयन मंत्रालय के आंकड़े और तथाकथित सर्वेक्षण इस रेखा को निर्धारित करते हैं। आप गलत नहीं होंगे अगर आपने इस मंत्रालय का नाम नहीं सुना हो। ये आपको आंकड़ों में बदल देने वाला मंत्रालय है। आपका नाम देखते देखते यहां संख्या बन जाता है और आपका समाज प्रतिशतों में बदल जाता है। फिलहाल बदलने की बात हो रही है लेकिन गरीबी की रेखा की परिभाषा कुछ इस तरह है।
ग्रामीण इलाकों में जिन्हें 2400 कैलोरी और शहरी इलाकों में 2100 कैलोरी का भोजन या जो भी खाद्य-अखाद्य पदार्थ मिल जाते हैं वे गरीब नहीं रहते। एक दिन में 2400 कैलोरी का मतलब है छह रोटी, सब्जी और एक कटोरी दाल, दो वक्त में। आप कल्पना कीजिए कि अगर आप भद्र लोग दिखने के लिए डाइटिंग नहीं कर रहे हैं तो आप कितनी कैलोरी खाते हैं। एक आम आदमी को स्वस्थ्य और कर्मठ रहने के लिए रोज कम से कम चार हजार कैलोरी की जरूरत है। मगर सन 1970 में यानी आज से चालीस साल पहले बनाया गया परिभाषा का यह आंकड़ा आज भी चल रहा है और इसी के हिसाब से 32 करोड़ लोग भारत में गरीब हैं।
गरीबी की इस परिभाषा में दवाई, शिक्षा, यातायात, आपदा, संकट, यात्रा और यहां तक कि अंत्येष्टि तक का खर्चा शामिल नहीं है। परिभाषा कहती है कि अगर आप खाने पर 2400 कैलोरी का भोजन खरीदने का खर्चा कर सकते हैं तो इससे ज्यादा कमाने के अभियुक्त है। आप चाहे जो कर ले, बाबुओं द्वारा बनाई गई यह परिभाषा भारत के बाबू बदलने नहीं देंगे क्योंकि इससे सरकार और देश छवि पर आंच आएगी।
सन 1970 के आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्राें में ये एक महीने के लिए 2400 कैलोरी 62 रुपए में और शहरी इलाकों में 71 रुपयों में खरीदी जा सकती है। मुद्रास्फीति के साथ 2000 तक यह आंकड़ा ग्रामीण इलाकों में 328 रुपए और शहरी इलाकों में 454 रुपए पहुंच गया थे। सन 2004 तक 5.5 प्रतिशत मुद्रास्फीति हो चुकी थी और यह आंकड़ा 454 और 540 रुपए मासिक तक पहुंच गया था। हम क्या बात कर रहे हैं।
हम यानी हमारी सरकार यह कह रही है कि अगर आपकी मासिक आमदनी 540 रुपए है और आप शहर में रहते हैं तो आपको गरीब नहीं माना जाएगा। मान लीजिए आप 600 रुपए कमाते हैं और 540 रुपए खाने पर खर्च कर देते हैं तो आप गरीब कैसे हुए? गरीब तो बेचारा ललित मोदी है जिसे 11 करोड़ एडवांस इनकम टेक्स भरने के बावजूद भ्रष्टाचार के मामलों में घसीटा जा रहा है। सोचने की बात यह है कि घर का किराया, बिजली का एक बल्ब, बस का एक टिकट इस खर्चे में शामिल नहीं हैं। रेडियो और केबल टीवी को तो भूल ही जाइए। गरीब जितने अज्ञानी रहे उतना ही भला है।
मनरेगा योजना का बहुत डंका पीटा जाता है। लाखों करोड़ रुपए का बजट है। इस बजट का बहुत बड़ा हिस्सा पहले अधिकारी खाते थे और अब अधिकारियों की कायरता की वजह से माओवादी खा जाते हैं। लेकिन इस परम कल्याण्ाकारी योजना में गरीबी की सीमा रेखा के नीचे रहने वाले लोगों के लिए साल में सौ दिन का अनिवार्य रोजगार लगभग सत्तर रुपए रोज के हिसाब से सुनिश्चित किया गया है। अगर ईमानदारी से यह रोजगार और मजदूरी मजदूरों तक पहुंचे- और हम काल्पनिक स्थिति की बात कर रहे हैं- तो भी एक व्यक्ति को पूरे साल में सात हजार रुपए की आमदनी पूरा दिन मजदूरी करने के बाद मिलेगी।
वातानुकूलित भवनों में जो गरीबी विशेषज्ञ बैठे हैं, उन्हें मेरी चुनौती है कि सात हजार रुपए में एक सप्ताह का अपना खर्चा चला कर बता दे। इतना तो उनके ड्राइवर का वेतन होता है। इससे कई गुना ज्यादा बिजली का बिल होता है। इससे कई सौ गुना गरीबी के नाम पर उनके हवाई सर्वेक्षणों पर खर्च किया जाता है। कालाहांडी या छतरपुर के गांवों में जा कर देखिए जहां एक उबले हुए आलू के सहारे पूरा परिवार आधा पेट चावल खाता है और हम कैलोरी की गिनती कर के उन्हें गरीब मानने से इंकार कर देते हैं। यह पाखंड हैं, आपराधिक और नारकीय पाखंड हैं और आईपीएल हो या मैच फिक्ंसिग, उससे भी बड़ा पाखंड हैं।
फिर भी हमारे देश में शानदार फाइव स्टार होटल हैं, हवाई जहाज से उड़ने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है, शहरों में जगमगाती सड़के चमकदार बसों से लैस हो रही हैं, हवाई अड्डो का विस्तार किया जा रहा है और वहां इंटरनेट वाई फाई की सुविधा दी जा रही हैं। कॉमनवेल्थ खेल हो रहे हैं और गरीब अपनी फकीरी की दुनिया में बने हुए हैं और जब तक आंकड़े बनाने वाले खुद पसीने का स्वाद नहीं जानेंगे तब तक गरीबी की सीमा रेखा भारत और पाकिस्तान के बीच की नियंत्रण रेखा की तरह बनी रहेगी जो है भी और नहीं भी।
Friday, April 23, 2010
बुद्धिमान हो तो मूर्ख बने रहो....
न संतान का...न सम्पत्ति का...न यश का...न श्रेय का...दुनिया में सबसे बड़ा कोई सुक अगर है तो बस मूर्ख बने रहने का सुख है। आप माने न मानें मूर्ख दिखने और बने रहने में (मूर्ख होने में नहीं) जो अद्बुत सुख है वो दुनिया के किसी भी विलास-ऐश्वर्य मे नहीं है। मूर्ख दिखने के फायदे तो आपको कई लोग बताएंगे पर आपको बताते हैं कि कैसे बना जाता है मूर्ख और किस तरह से दुनिया भर में तमाम अक्लमंद लोग मूर्ख बन कर मज़े से ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं.....
महंगाई चरम पर है, सरकार मू्र्ख बनी बैठी है....कहती है हमें नहीं पता महंगाई कैसे आई, यह भी नहीं पता कैसे जाएगा....हम तो मूर्ख हैं....अब समझेगी तो दुख होगा, सो बने रहो मूर्ख....
सीधे सादे आदिवासी कैसे बन गए माओवादी? ...हमें नहीं पता कैसे बन गए...जा कर उन्हीं से पूछिए...हमें समझ कर क्या करना...समझेंगे तो अपने ज़ुल्मों का...उपेक्षा का...अत्याचारों का हिसाब भी देना पड़ेगा....सो बने रहो मूर्ख....
महिला आरक्षण बिल राज्यसभा से गिरा तो लोकसभा में अटक गया...नेता जी से पूछा कि क्यों हुआ भई ऐसा...नेताजी बोले...हमें तो पता ही नहीं...लो भई मस्त रहो...बने रहो मूर्ख....
दो दिन पहले तक आयशा सिद्दीकी, शोएब मलिक की आपा थीं...अब उनको तलाक दे दिया....आंय दो दिन में आपा...बेगम बन गई...शोएब बोले हमें नहीं पता...जवाब ढूंढ लेंगे पहले सानिया से निकाह हो जाए...सो बने रहो मूर्ख....
टीवी चैनल दो दिन पहले चिल्ला रहे ते ये शादी नहीं हो सकती...अब कह रहे हैं सानिया तेरी अंखिया सुरमेदानी....पब्लिक बोली ऐसा क्यों...रिपोर्टर बोले पता नहीं...बढ़िया है बने रहो मूर्ख....
बहन जी (अपनी यूपी वाली) के गले में किसी ने नोटों माला डाल दी...ऐसी वैसी नहीं...1000-1000 के नोटों की...सबने अपनी औकात के हिसाब से कीमत लगाई....किसी ने दस हज़ार तो किसी ने दस करोड़ की बताई...जब अदालत से लेकर ऐजेंसियों तक सब पूछेंगे कि किसने पहनाई माला... तो बहन जी के साथ उनके चमचे कहेंगे...हमें पता ही नहीं....सही है बने रहो मूर्ख....
अफगानिस्तान....ईराक....तबाह हो गए...जहां तहां देखो बम या तो गिर के फटते हैं...या फट के गिरते हैं....कभी-कभी उसमें आतंकी भी मर जाते हैं...और ज़्यादातर बच्चे और महिलाएं....और जब अंकल सैंम से पूछा जाता है कि क्यों भई आपकी फौजें ये क्या कर रही हैं...तो वो अंग्रेज़ी में बुदबुदा देते हैं....”हमें नहीं पता....” लगे रहो....बने रहो मूर्ख...शाबास....
न्यूज़रूम में आउटपुट हेड चिल्ला रहा है...इतनी ज़रूरी बाइट कैसे मिस हो गई.....कौन कटवा रहा था पैकेज....रनडाउन प्रोड्यूसर कहता है...सर पता नहीं....बच गए...बने रहो मूर्ख....
पिताजी खोपड़ी पर हाथ धरे चीख रहे थे....कलपते हुए हमसे बोले...इस बार तो तीन ट्यूशन लगवाई थी...फेल कैसे हो गए...हमने धीरे से कहा...पता नहीं कैसे....बच गए....बने रहो मूर्ख....
गाड़ी पार्क कर रहे थे...पीछे खड़ी गाड़ी को ठोंक दिया....वो उतर कर आया...बोला ये कैसे हुआ....हमने भी कह दिया...भाई साहब...हमें पता नहीं चला कि पीछे आप थे....जे बात...बने रहो मूर्ख....
दरअसल मूर्खता में ही असली आनंद है...दुनिया भर की तमाम मुश्किलों से निजात का सबसे आसान तरीका है ....मूर्ख बन जाओ....हर बात पर एक ही जवाब दो...”हमें नहीं पता...” आपको बताऊं कि दुनिया में इससे ज़्यादा मूर्खतापूर्ण कोई जवाब नहीं हो सकता है....पर ज़्यादातर मौकों पर ये सबसे समझदारी भरा जवाब साबित होता है....और आपको आने वाली मुसीबतों से साफ बचा ले जाता है....और अब कि जब कोई अच्छा ब्लॉगर ब्लॉगिंग छोड़े....और आप पर सवाल उठें....आपकी की गई बेनामी टिप्पणियों को लेकर लोग आप पर ही शक करें....असभ्य भाषा का प्रयोग करने पर आपसे लोग शिकायत करें...कि “क्यों हे ब्लॉगर....तूने ऐसा क्यों किया....”……तो आप चुपचाप मूर्ख बन जाइएगा और सर्वबाधाहारी सुनहरा मंत्र दोहरा दीजिएगा....”मुझे नहीं पता....”
Tuesday, April 20, 2010
मोदी की 'ललित' कला....
रईस खानदान का एक आदमी था। चार साल पहले बैंकों का उधार चुकाने और आयकर देने के लिए भी उसके पास पैसे नहीं थे। बैंकों ने उसे असंभवन देनदार यानी डिफॉल्टर करार दे दिया था। वही आदमी इस साल सिर्फ एडवांस इनकम टेक्स के तौर पर ग्यारह करोड़ रुपए जमा कर चुका है। अपना जेट खरीद चुका है। कई फॉर्म हाउस है उसके पास और सबसे महंगी मर्सडीज और बीएमडब्ल्यू कारों का एक अच्छा खासा काफिला है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बंगलुरु और हैदराबाद में अब इस आदमी के नाम से पांच सितारा होटलों में लगातार महंगे कमरे बुक रहते हैं। वह सिर्फ एक कुछ घंटों की पार्टी के लिए दुबई जाता है और लौट कर देश के कई शहरों में होते हुए किसी भी शहर के बडे होटल में जा कर टिक जाता है। इस आदमी का अगला ठिकाना दिल्ली की तिहाड़, मुंबई की आर्थर रोड या कोलकाता की प्रेसीडेंसी जेल होने वाला है। इस आदमी का नाम ललित कुमार मोदी है। तीन साल में क्रिकेट के बुखार को कैश करवा कर एक सफलतम व्यापारी होने का तमगा इसने हासिल किया है और बड़ी बड़ी पत्रिकाओं में उसके फोटों के साथ कवर स्टोरी छपी है। ललित मोदी जेल गए तो उनके लिए यह पहली जेल यात्रा नहीं होगी। बहुत साल पहले जब वे अमेरिका में पढ़ते थे तो अपहरण, धोखाधड़ी और हत्या के प्रयास के आरोप में उन्हें गिरफ्तार किया गया था और बहुत मोटा जुर्माना दे कर वे छुटे हैं। आयकर विभाग की जो रिपोर्ट केंद्रीय प्रत्यक्ष कर प्राधिकरण को सौंपी गई है उसमें दूसरे पैरा में ही लिखा है कि इतने सारे पैसे का लेन देन होना और उसका कोई विधिवत रिकॉर्ड नहीं रखा जाना ललित मोदी को हवाला से ले कर विदेशी मुद्रा कानून तक का संदिग्ध अभियुक्त बनाता है। अब तो इस बात की भी पड़ताल होनी है कि जयपुर के रामबाग पैलेस होटल में रह कर ललित मोदी किस तरह मैच फिक्सिंग करवाया करते थे। विजय माल्या मोदी के बचाव में बहुत बोल रहे हैं। वे एक आईपीएल टीम के मालिक भी हैं और उनकी सौतेली बेटी आयकर विभाग के अधिकारियों के पहुंचने के पहले ही ललित मोदी के होटल फोर सीजंस के कमरे से उनका लैपटॉप और फाइलें निकाल कर ले जाती है। कैमरे के सीसी टीवी पर ये सब दर्ज है। बेटी से पूछताछ की जाती है और फिर छोड़ दिया जाता है। वह तो क्रिकेट के डॉन अपने बॉस ललित मोदी की आज्ञा का पालन कर रही है। ललित मोदी को बचाने में शरद पवार जिस कदर कूदे हैं वह भी कम खतरनाक संकेत नहीं है। आखिर शरद पवार विश्व भर में क्रिकेट को नियंत्रित करने वाली आईसीसी के मुखिया बनने वाले हैं और उन्हें ललित मोदी जैसा प्रतिभाशाली लोकल दलाल जरूर चाहिए। इतने हजार करोड़ का खेल हैं कि लोग भूल जाए कि रकम के आंकड़ों पर कितनी बिंदिया लगती है। ललित मोदी की जीवन शैली जिस तरह बदली है वही इस बात का संकेत हैं कि अंधाधुंध पैसा आया है और बेहिसाब खर्च किया गया है। शशि थरूर ने हो सकता है कि बहती गंगा में खुद और अपनी सहेली सुनंदा के साथ हाथ धोने की कोशिश की हो मगर ललित मोदी तो अब तक मिली फाइलों और जानकारियों के हिसाब से क्रिकेट के इतिहास में सबसे बड़े खलनायक साबित होते जा रहे हैं। सत्यम के रामलिंगा राजू पर तो छह हजार करोड़ रुपए के निवेश का अपने परिवार के नाम निवेश कर देने का आरोप है और वे जेल में सड़ रहे हैं। मगर अब तक ललित मोदी के कुकर्मों का जो इतिहास सामने आया है वह तो बीस हजार करोड़ के आसपास पहुंचता है। आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय को इस बात के काफी प्रमाण मिल चुके हैं कि आईपीएल के नाम पर अंडरवर्ल्ड से ले कर दुनिया के कई देशों में छिपा कर रखी गई रकम को काले से सफेद किया गया है और अब जब धंधे की पोल खुलती जा रही है तो बहुत बड़े बड़े लोग भय से कांपते घूम रहे हैं। हमारे केंद्रीय नागरिक उडयन मंत्री और सत्ताइस नंबर बीड़ी बनाने वाले प्रफुल्ल पटेल जो मुंबई में कक्षा एक से आठ तक शशि थरूर के सहपाठी थे, भी थरूर से नाराज हैं क्योंकि थरूर और मोदी के बीच जो झगड़ा शुरू हुआ उसके कारण उनके राजनैतिक गुरू शरद पवार पर सीधे आंच आ रही है। ललित मोदी को सिर्फ आईपीएल कमिश्नर के पद से हटाने से काम नहीं चलने वाला। यह आदमी एक बड़ा आर्थिक अपराधी है और इसने खुलेआम अपराध करने के मामले में केतन पारिख और हर्षद मेहता को भी पीछे छोड़ दिया। राजस्थान में भाजपा शासन के दौरान मोदी और उनके साथियों ने सरकार की खुली और बेशर्म मदद से कई कंपनियों के नाम से जमीन और दूसरे कारोबारों मे निवेश किया। बसुंधरा राजे पर भी आंच आने के पूरे आसार है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत तो अब कहते हैं कि बसुंधरा अपने अफसरों को फाइलें ले कर राम बाग पैलेस भेजा करती थी और अफसरों को नोटिंग मोदी करवाया करते थे और संबंधित मंत्री उन पर दस्तखत करने के लिए बाध्य होता था। प्रणब मुखर्जी जब संसद में यह कह रहे थे कि आईपीएल और बीसीसीआई के कारोबार की सब जांच की जाएगी और किसी को नहीं बख्शा जाएगा तो उन्हें पता था कि महाराष्ट्र में एनसीपी-कांग्रेस की सरकार को वे दांव पर लगा रहे है। जयपुर विकास प्राधिकरण के भूतपूर्व अध्यक्ष जगदीश चंद्र माली, एक कारोबारी नितिन शाह और अफसर अशोक सिंघवी और पुरुषोत्तम अग्रवाल मिल कर काले धन का यह कारोबार चला रहे थे। अडानी उद्योग समूह भी इस धंधे में शामिल था। कहानी बहुत लंबी है लेकिन एक सवाल पूछा जा सकता है बल्कि पूछा ही जाना चाहिए। आयकर विभाग के अधिकारियों को आखिर दो साल बाद कैसे याद आया कि आईपीएल ने टेक्स जमा नहीं किया है और अपने खातों की जानकारी नहीं दी है। क्या वे अखबारों के शीर्षकों के आधार पर काम करते हैं? ललित मोदी को भारतीय क्रिकेट का चेहरा बदलने का श्रेय दिया जाता है जो शायद सही भी हो मगर क्रिकेट को चेहरा बदल कर कोठे पर बैठाने का कलंक भी ललित मोदी को ही झेलना पड़ेगा।
तथाकथित चैनल की बौद्धिकवादिता और बैशर्मी
मित्रो,
आज 20 अप्रेल और पूरे 14 दिन हो गये -6 अप्रेल 2010 का दिन देश के साथ साथ 76 परिवारों के लिए भी कहर बनकर टूटा जब दंतेवाड़ा के ताड़मेटला के जंगल मे नक्सलियों ने एम्बुस लगाकर 76 जवानों को मौत के घाट उतार दिया. नक्सलियों द्वारा किये गये इस घृणित कृत्य की पूरे देश ने आलोचना की और गृह मंत्री के साथ पूरा विपक्ष एक जुटता के साथ खड़ा था. इस घटना के बाद कई माताओं ने अपने बेटे को खो दिया, कई बहने ये कभी ना चाहेंगी कि उनके जीवन मे कभी रक्षा बंधन भी आए, कई औरते ये कभी नही चाहेंगे कि उसकी जिंदगी मे करवा चौथ नाम का कोई पर्व आए.
लेकिन इसी देश मे जब संचार क्रांति अपने चरम पर है और लोग किसी भी समाचार के लिए विजुअल मीडिया पर यकीन करते है .उसी दौर मे एक ऐसा भी चैनल है जो अपने आप को अन्य चैनल से अलग मानता है और इस चैनल के बारे मे कुछ लोग ये भी कहते हैं यहां देश के सर्वश्रेष्ठ संपादक,रिपोर्टर ,और एंकर अपनी सेवा देते है .
और यही वह चैनल है जो किसी भी रिपोर्ट पर अपने चैनल को दूसरे अन्य हिन्दी चैनल की तुलना करने मे भी पीछे नही हटता..इसी चैनल पर इसके रिपोर्टर रोज रात देश देश में मूल्यों और आदर्शों की गिरावट से लेकर नैतिकता और सांस्कृतिक मूल्यों की बात करके ये जताने की कोशिश करते हैं कि इस देश की संस्कृति और मर्यादा का ठेका उन्होंने ही ले रखा है।लेकिन इसी चैनल द्वारा छत्तीसगढ़ में नक्सली हमले में शहीद हुए सीआरपीएफ के जवानों की खबर को दिखाते समय शहीद हुए तमाम जवानों का जो अपमान किया है उसका यह चैनल शायद ही कभी पाप धो पाए। 7 अप्रैल को सुबह 9 बजे से इस चैनल पर दिखाया जा रहा था कि ' नक्सली हमले में शहीद हुए सैनिकों के शव उनके घरों तक पहुँचाए जाएंगे और उनके अंतिम संस्कार की तैयारियाँ जोर-शोर से चल रही है।' देश के लिए शहीद होने वाले किसी शहीद का इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता है कि इस देश का कोई चैनल उसके अंतिम संस्कार की तैयारियों को जोर-शोर से की जा रही तैयारियाँ बताए। क्या इस तथाकथित बौद्धिकवादी एंकर और तमाम हिन्दी प्रेमी ये समझाने की कोशिश करेंगे कि इस देश में किसी के अंतिम संस्कार की तैयारियाँ जोर शोर से किए जाने की परंपरा कहाँ से शुरु हुई? क्या इस चैनल में बैठे लोग दिमागी रूप से इतने दिवालिये हो चुके हैं कि उनके पास शहीदों के सम्मान में कहने के लिए दो शब्द भी नहीं हैं? क्या इस चैनल की समाचार वाचिका ने शहीदों के अंतिम संस्कार की खबर को सानिया मिर्ज़ा की शादी की खबर समझा था जो उनके अंतिम संस्कार की तैयारियाँ जोर-शोर के की जाने की बात बार बार दोहराई जा रही थी।
जरा इस चैनल की करतूत दूसरी करतूत
बात निकली है तो एक बात इस चैनल को फिर से याद दिला दें कि 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में ढाँचा गिराए जाने के दौरान लालकृष्ण आडवाणी द्वारा दिए गए भाषण को लेकर उनकी सुरक्षा में तैनात अंजू गुप्ता द्वारा 26 मार्च को दिए गए बयान को लेकर इस चैनल ने लालकृष्ण आडवाणी पर तीखी टिप्पणियाँ प्रस्तुत करते हुए ये जताने की कोशिश की थी लालकृष्ण आडवाणी कितने झूठे और बेईमान किस्म के नेता हैं. लेकिन लोकसभा चुनावों के ठीक पहले इसी चैनल ने इन्हीं लालकृष्ण आडवाणी को देश की सेवा के लिए पुरस्कार से देकर सम्मानित किया. जब यह चैनल लालकृष्ण आडवाणी की योग्यताओं के लिए उन्हें पुरस्कृत कर चुका है तो फिर वे झूठे और बेईमान किस्म के नेता कैसे हो सकते हैं? कहीं ये तो नहीं कि इस चैनल ने आडवाणी को पुरस्कार इसलिए दिया था ताकि वे प्रधान मंत्री बन जाएँ तो उसका पुरस्कार इस चैनल को भी मिल सके.
अब आप ही बताये कि हर हमेशा दोषियों को कटघरे मे खड़े करने वाले लोगो पर क्या कार्यवाई होनी चाहिए.....
ये ही देश के तथाकथित बुद्धिजीवी हैं जो देश के बंटाधार पर लगे हैं.
जरा इस चैनल की बेशर्मी और जवानों के प्रति अनादर का भाव देखे .
7 अप्रैल, बुधवार की रात 9 बजे प्रसारित किए जाने वाले समाचार के साथ एक मोबाईल कंपनी के विज्ञापन के साथ अंगेजी शब्द 'Moment of the Day' के साथ नक्सली हमले में शहीद हुए जवानों के शव दिखाए गए। शहीद जवानों के साथ ये घिनौना मजाक देखकर ऐसा लगा मानो शहीदों की शहादत को अंग्रेजी के पैरों तले रौंदा जा रहा हो। पहले तो हमको लगा कि हमारी ही अंग्रेजी का स्तर घटिया है और हमको 'Moment of the Day' का मतलब नहीं मालूम होगा, इस चैनल और इसके एंकर तो समझदारों से भी बड़े समझदार हैं, देश के दो दो कौड़ी के नेताओं से लेकर बड़े बड़े और घटिया नेताओं के साथ देश की हर समस्या पर गंभीरता से साक्षात्कार करते हैं, उनकी भी सुनते हैं और उनको सुनाते भी हैं, उनकी अंग्रेजी हमारी दौ कौड़ी की अंग्रेजी से ज्यादा अच्छी होगी। इसलिए हमने 'Moment of the Day' का अर्थ इंटरनेट पर ही खोजने की कोशिश की। जब हमने 'Moment' शब्द का अर्थ अलग अलग वेब साईट और शब्दकोषों में देखा तो हमारे पैरों तले जमनी ही खिसक गई। 'Moment' का मतलब था 'कोई ऐतिहासिक या यादगार दिन या ऐसा दिन जो हमारी जिंदगी में बार बार आए।'
क्या इस देश के वीर जवानों की शहादत इस चैनल के लिए एक ऐसा दिन है जो बार बार आना चाहिए। चैनल में बैठे अंग्रेजी के गुलामों को चाहिए कि वे खबरें देने के साथ ही देश की संस्कृति और मूल्यों को भी जान लें। ऐसा अगर किसी और देश में होता तो उस देश के लोग और वहाँ की सरकार उस चैनल के तमाम कर्ताधर्ताओं को सींखचों में बंद कर देती। लेकिन ये तो इस देश का दुर्भाग्य है कि इस देश पर वे लोग राज कर रहे हैं जिन्हें देश की भाषा, संस्कृति और मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे में विदेशी मानसिकता से चलेन वाले ऐसे चैनल अगर इस देश के शहीदों की शहादत से लेकर यहाँ की संस्कृति और मूल्यों के साथ खिलवाड़ करे तो उनका क्या बिगड़ सकता है?
अंग्रेजी शब्द मोमेंट का क्या मतलब होता है ये आप भी देखिए और ये भी विचार कीजिए कि क्या सैनिकों के शव के साथ 'Moment of the Day' दिखाकर इस चैनल ने देश के इन शहीद जवानों का अपमान नहीं किया है?
दोस्तो आप समझ गये होंगे कि मै किस चैनल की बात कर रहा हूं..
मैने पहले भी कहा था और इस बात मे पूरी तरह यकीन रखता हूं कि मीडिया संमाज का दर्पण होता है और अगर दर्पण पर धुंध पड़ जाए तो लोग उस दर्पण को देखना भी पसंद नही करते है, समाचार चैनल को किसी भी विचारधारा या पार्टी के व्यक्तिगत दृष्टिकोण से प्रभावित हुए बिना काम करना चाहिए ताकि लोगो का विश्वास बना रहना चाहिए...
मै इस चैनल की बुराई नही करता हूं लेकिन जो सच्चाई है उसे आपके सामने हमने पेश किया हैं....
Monday, April 19, 2010
थरूर तो गए...अब क्या मोदी?
शशि थरूर की कुर्सी जानी ही थी सो चली गई। और कोई मौका होता तो ललित मोदी बहुत बड़े हीरो के तौर पर सामने आते। लेकिन एक केंद्रीय मंत्री को उनके लगाए आरोपों की वजह से जाना पड़ा इससे ललित मोदी की मुसीबत असल में और बढ़ गई है। बीसीसीआई के सामने साधारण विकल्प है कि मोदी से कहे कि जब सरकार ने ठीक से जवाब नहीं दे पाने के कारण दस जनपथ के इतने करीबी शशि थरूर को बाहर का रास्ता दिखा दिया तो तुम्हारा तो अतीत भी कलंकित है और वर्तमान भी। अगली बलि ललित मोदी की चढ़ने वाली है। मगर वह सब बाद में।
यह तो पहले लिखा जा चुका है कि शशि थरूर के साथ सब कुछ वैसी ही मुद्रा में होने वाला था जैसा नटवर सिंह के साथ हुआ था और दस जनपथ के बहुत करीबी होने के बावजूद हुआ था। शशि थरूर से हर मंच पर सफाईयां मांगी गई, संसद में उन्होंने जो बयान दिया वह भी प्रणब मुखर्जी ने बोल कर लिखवाया था लेकिन कांग्रेस में या भारतीय राजनीति में शशि थरूर जैसे अभिजात मुद्राओं वाले नेताओं की अभी तक जगह नहीं बन पाई है। इस अभिजात आरोप को नकारने के लिए शशि थरूर ने सूट छोड़ कर कुर्ता पाजामा पहनना शुरू किया। ज्यादातर मलयालम बोलनी शुरू की और कोच्ची की आईपीएल टीम पर विवाद में भी अपना केरल प्रेम जाहिर करने की कोशिश की मगर वह काम नहीं आया। केरल का विदेश मंत्रालय और उसके विवादों से बहुत करीब का रिश्ता है। जवाहर लाल नेहरू की सरकार में वी के कृष्ण मैनन खुद नेहरू जी का चुनाव थे। वे सबसे पहले स्वतंत्र भारत के इंग्लैंड में उच्चायुक्त बनाए गए थे। उस दौर में संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के मुद्दे पर भारतीय पक्ष रखने पर आठ घंटे लंबा उनका भाषण आज तक लोगों को याद है। इसके बाद उन्हें रक्षा मंत्री बनाया गया और 1962 में जब चीन ने भारत को हरा दिया तो उन्हें जाना पड़ा। वैसे सेना में जीप खरीद घोटाले में भी उन पर आरोप लगे थे।
केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम ने भारत की विदेश नीति चलाने वाले बहुत से बड़े नेताओं को भेजा है। थरूर की इसी सीट से कृष्ण मैनन जीते थे। तिरुवनंतपुरम अपनी साक्षरता और महाराजा त्रावणकोर के अलावा नारायण गुरु जैसे समाज सुधारकों के लिए भी जाना जाता है। दिल्ली की राजनीति और अफसरशाही में मलयाली मूल की बहुत महत्वपूर्ण जगह है और विदेश सचिव से ले कर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तक केरल मूल के अधिकारी ही बनते रहे है। कृष्ण मैनन और थरूर की अलग तुलना की जाए तो दोनों में समानता यह है कि राजनैतिक छवि के अलावा उनकी छवि मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग में दुनिया भर में मशहूर राजनयिक और विद्वानों की रही है। थरूर के संसदीय परिचय में उनको लेखक और शांति रक्षक के अलावा संयुक्त राष्ट्र का भूतपूर्व उप महासचिव भी लिखा गया है। पहली बार ही वे 92 हजार वोटो से जीत कर आए लेकिन विवादो से दोस्ती करने में शशि थरूर का कोई जवाब नहीं है। कभी राष्ट्रगान को ले कर फंसते हैं, कभी टि्वटर को ले कर और अब आईपीएल विवाद ने तो लगभग उनका सफाया ही कर दिया।
केरल की राजनीति में सांसदों से आईपीएल की टीम बनवाने की बजाय समाज सेवा की अपेक्षा की जाती है लेकिन 54 साल की उम्र में भी युवा दिखने वाले शशि थरूर ने बहुत सालों तक पूरी दुनिया देखते रहने के अपने अनुभव के आधार पर अपनी आधुनिक छवि पेश करने का फैसला किया। मगर दस जनपथ का कमाल यह है कि उसने न अपने तीन पीढ़ी से वफादार नटवर सिंह की उपेक्षा की बल्कि जिन थरूर को राहुल गांधी और मनमोहन सिंह बहुत समझा और पटा कर राजनीति में लाए थे, उनकी रक्षा की भी कोई परवाह नहीं की गई। शशि थरूर ने गलती से यह मान लिया था कि अपनी आधुनिक छवि और परंपरागत शैली के हिसाब से उनके पास युवा और पढ़े लिखे मतदाताओं का अपना चुनाव क्षेत्र बन गया है। उन्होंने एक स्वायत्त किस्म की राजनीति शुरू की। थरूर ने मनमोहन सिंह से कुछ नहीं सीखा जिन्हें राजनीति नहीं आती है मगर वफादारी का अभिनय अच्छा कर लेते हैं। मनमोहन सिंह ने तीन पार्टी अध्यक्षों और तीन प्रधानमंत्रियों के साथ अलग अलग पदों पर काम किया और लगातार वफादार बने रहे। शायद इसीलिए जब सोनिया गांधी को कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुन लिया गया था तो उन्होंने अपना ताज पालतू मनमोहन सिंह को पहना दिया। यूपीए अगर ठीक से चलती रही तो मनमोहन सिंह जवाहर लाल नेहरू के बाद सबसे लंबे समय तक लगातार प्रधानमंत्री बने रहने का रिकॉर्ड बनाएंगे।
थरूर की दिक्कत यह भी है कि वे जो सोचते हैं, कह देते हैं और इंटरनेट के जमाने में एक सेकेंड में उनकी बात दुनिया भर में फैल जाती है। अमेरिका और दूसरे लोकतंत्राें ने बड़े नेता टि्वटर और फेसबुक पर हैं और अपनी निजी राय जाहिर करते रहते हैं लेकिन उन पर कोई सवाल नहीं उठाता। फ्रांस के सरकोजी तो अपनी प्रेमिकाओं की तस्वीरे ऑरकुट पर डालते हैं और जनता से उन पर राय मांगते हैं। मगर यह भारत हैं और भारतीय राजनीति के कुछ सुविधाजनक संस्कार बन गए हैं। भारतीय राजनीति में नेता की जो छवि है उसे तोड़ने वालों को आसानी से माफ नहीं किया जाता। अमिताभ बच्चन जैसे महानायक इसी छवि की वजह से राजनीति से जाने पर मजबूर हुए। अरुण नेहरु, अरुण सिंह और अशोक मित्रा ने मणिशंकर अय्यर, यशवंत सिन्हा और बंगाल के वित्त मंत्री असीम दास गुप्ता से कोई सबक नहीं सीखे। मणिशंकर अय्यर तो जब कॉलम लिखते थे तो काफी उग्र शब्दों में लिखते थे मगर उन्हें अपनी सीमाएं मालूम थी। उन्होंने नेहरू, गांधी परिवार को ऐतिहासिक संदर्भों में भी कभी शामिल नहीं किया। भारतीय राजनीति में बने रहने के लिए आपके पास एक बड़ा आश्रय होना चाहिए और उस आश्रय का सम्मान या कम से कम सम्मान का अभिनय करना आना चाहिए यह बात थरूर भूल गए। वे पेशेवर नेता नहीं है। थरूर की राजनीति का क्या होगा यह तो अभी नहीं कहा जा सकता लेकिन कांग्रेस के लिए वे पूंजी अब भी हैं। राजनीति उनकी मजबूरी नहीं हैं। सात लाख रुपया महीना टेक्स फ्री पेंशन उन्हें संयुक्त राष्ट्र से मिलती है और वे जिस दिन चाहेंगे उस दिन कोई भी बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी उन्हें अपना सीईओ बना कर बुला लेगी। कई ऐसे बड़े राजनेता रहे हैं जिन्होंने अपनी राजनीति खूंटी पर टांग कर अपने अपने कारोबार में मन लगाया है।
आलोक तोमर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, टीवी-फिल्म पटकथा लेखक हैं)
Thursday, April 8, 2010
नक्सली हिंसा और रक्तरंजित दंतेवाड़ा
एक साल से भी कम वक्त मे नक्सली ने एक बड़ी वारदात को अंजाम देते हुए 76 जवान को मौंत के घाट उतार दिया. 6 अप्रेल 2010 छत्तीसगढ़ के इतिहास की सबसे रक्तरंजित सुबह बनकर आयी जब पूरी दुनिया ने नक्सलवाद का सबसे क्रूरतम और घिनौना चेहरा देखा, और 76 परिवारों मे किसी ने भाई, तो किसी ने पिता तो किसी ने अपना पति को खो दिया. ये पहला मौका नही जब नक्सलियों ने सुरक्षाकर्मियों को अपना निशाना ना बनाया हो इससे पहले भी उन्होने सुरक्षाकर्मियों के साथ साथ आम नागरिकों को भी मौत के घाट उतारा है लेकिन एक साथ इतने जवानों का नरसंहार उन्होने पहली बार किया है .हालांकि नकस्लियों के लिए नरसंहार कोई नयी बात नही है.भारत मे दुर्घटनाये घटती है तीन चार दिन तक लोग आहत दिखते है सरकारे औपचारिकताएं पूरी करती है और जिंदगी फिर उसी ढर्रे पर चलने लगती हैं. लेकिन एक सवाल जिसका जवाब आज तक नही मिल पाया है कि आखिर कब तक सुरक्षाकर्मी या सामान्य नागरिक नक्सली हिंसा के शिकार होते रहेंगे. सीधी सी बात है जिसका खोता है वही ढूंढ़ता है और जिन 76 लोगो को नक्सलियों ने निशाना बनाया है उसका दर्द भी इन 76 परिवारों को ही होगा. दंतेवाड़ा के ताड़मेटला का जंगल जहां पर ये घटना घटी वह नक्सलियों का गढ़ कहा जाता है जहां सरकार अपनी पकड़ बनाने के लिए प्रयास कर रही हैं.4 अप्रेल 2010 से सीआरपीएफ की 62 वी बटालियन की एक कंपनी ग्रीन हंट अभियान के तहत सर्चिंग मे लगी थी.इस कंपनी मे कुल 82 जवान और आफिसर शामिल थे.अभियान में लगे जवान दिन भर सर्चिंग के बाद चिंतलनार थाने में कैंप करते थे. घटना की रात जवान वही सो रहे थे.नक्सलियों ने जवानों की गतिविधियों को ध्यान में रखकर सोची समझी साजिश के तहत एम्बुस लगाया.इससे पूरी कंपनी उनके घेरे में फस गई और देखते ही देखते ही 76 जवान मौंत के गाल मे समा गये.हमला करने वाले नक्सलियों की संख्या 1000 से ज्यादा थी और आप समझ सकते है कि 82 जवान किस तरह हजार नक्सलियों का सामना कर पाते. लेकिन कब तक नक्सली अपने रणनीति मे सफल होते रहेंगे और कब इस देश से नक्सलियों का खात्मा होगा. जब श्रीलंका से एलटीटीई का खात्मा हो सकता है पंजाब से आतंकवाद का खात्मा हो सकता है तो भारत से नक्सली और नक्सली विचारधारा को क्यो नही खत्म किया जा सकता है. कुछ लोग यह तर्क देते है कि हिंसा के रास्ते नक्सली समस्या का समाधान नही हो सकता है लेकिन एलटीटीई या पंजाब से आतंकवाद का समाप्ति भी तो सैन्य तरीके से ही तो हुई .क्योकि मानवता के हत्यारे ये नक्सली कानून या संविधान की भाषा नही समझ सकते है . अब समय आ गया है कि किसी भी मानवाधिकार की कोई बिना परवाह करते हुए इस नक्सलियों से कठोरतम तरीके से निपटा जाए. देश मे इस समय नक्सलियों के खिलाफ वातावरण है और सरकार को चाहिए कि इस वातावरण का उपयोग कर नक्सलियों को उड़ीसा,आंध्रप्रदेश,छत्तीसगढ़,महाराष्ट्र,झारखंड,बिहार से समाप्त कर दे .क्योकि कब तक हम नक्सली समस्या और हिंसा को टालते रहेंगे और कब तक देश के जवान और भोली भाली जनता नक्सली हिंसा का शिकार बनते रहेंगे. इसमे कोई शक नही है कि नक्सली हिंसा हमारी 60 सालों की राजनीतिक और प्रशासनिक असफलता का नतीजा है .सरकारी तंत्र में फैला भ्रष्टाचार, कुछ मुट्ठीभर लोगो मे देश की संपदा का बड़ा हिस्सा होने से निरक्षर और युवकों मे निराशा का वातावरण है और इसे दूर करने के लिए पुख्ता प्रयास करने की आवश्यकता है लेकिन इस तर्क के आड़ मे नक्सलियों से कोई हमदर्दी नही दिखानी चाहिए क्योकि जिस राह पर नक्सली चल रहे है और जो उनका लक्ष्य है वह देश की एकता और अखंडता के लिए घातक सिद्ध हो रहे है. पहले ही सरकार ने इस मामले मे उदासीनता का परिचय दिया है लेकिन ईमानदारी और पारदर्शिता से अगर सारी कल्याणकारी योजनाओं को धरातल पर उतारा जाए तो भोले भाले आदिवासी नक्सलियों के बहकावे मे नही आएंगे. सुरक्षा तंत्र,स्थानीय तंत्र,खुफिया तंत्र मे समन्वय की जोरदार आवश्यकता है जिसके आधार पर नक्सलियों को मुहतोड़ जवाब दिया जा सकता है... ताकि फिर कोई निर्दोष या निहत्थे नक्सलियों के निशाने पर ना आये पाये.बिना किसी रहमदिली के नक्सलियों के खात्मे का वक्त आ गया है....और हम उम्मीद करते है कि जिस तरह भारत ने दूसरे अन्य संकट पर विजय पायी है उसी तरह नक्सली हिंसा पर भी विजय मिलेगी.. एक बात और अगर किसी भी स्तर पर तथाकथित बौद्धिक वर्ग के लोग नक्सलियों का समर्थन करते है तो ऐसी आवाज और ऐसे समर्थन के खिलाफ भी कठोरतम कार्यवाई की जानी चाहिए क्योंकि इन मावनाधिकारवादियों ने नक्सली हिंसा के शिकार जवानों के परिवारों की पीड़ा जानने की कोई कोशिश कभी नही की है.
Tuesday, April 6, 2010
ममता की मेहरबानी
Saturday, April 3, 2010
हम पंछी एक डाल के....एलुमनी मीट....
फिर पंछी इकट्ठे हो रहे हैं...कहां...अरे वहीं जहां से उन्होंने उड़ना सीखा था...और उड़ना शुरू किया था...कल यानी कि 4 अप्रैल 2010 को माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय पूर्व छात्र मिलन का कार्यक्रम आयोजित कर रहा है....जी हां कई सारे कनिष्ठ और वरिष्ठ पंछी पत्रकार वहां पहुंच रहे हैं...आप आ रहे हैं या नहीं...ये मौका फिर नहीं मिलेगा....पुराने किस्से याद कर के ठहाके लगाने का...गुरुजनों के पैर फिर छूने का....पोहा जलेबी खाने का....और एक दिन के लिए फिर बच्चा बन जाने का....तो चल पड़िए बस....
जगह....समन्वय भवन, एपेक्स बैंक, न्यू मार्केट के पास....(न्यू मार्केट तो याद ही होगा....)
तो सबका इंतज़ार रहेगा.....कल मिलते हैं भोपाल में....हां सम्पर्क करना चाहें तो डा. अविनाश बाजपेयी को 09425392448 पर....या मुझे 09310797184 पर सम्पर्क कर सकते हैं...सुबह साढ़े सात मैं भी पहुंच जाऊंगा.....
Thursday, April 1, 2010
गुजरात दंगे और विभिन्न नजरिया
क्यो इन्हे नही दिखता जम्मू काश्मीर के दस लाख हिंदू विस्थापितों का दर्द जो पिछले 60 साल से विस्थापितों की जिदंगी जी रहे है..
क्यो इन्हे नही दिखता दंतेवाड़ा,बीजापुर, मीदनापुर के भोले भाले आदिवासियों का दर्द जो नक्सली हिंसा से सर्वाधिक पीड़ित है.....
क्यो इन्हे नही दिखता है आतंकवाद से पीड़ित परिवारों का दर्द क्यो इन्हे नही दिखता है 26नवंबर 2008 ,11 जुलाई 2006 13 सितंबर 2008 के आतंकवादी घटना के शिकार परिवार और सैना के जवानों का दर्द क्या इनका कोई मानवाधिकार नही है क्या ये देश के नागरिक नही है..
क्या तिस्ता सीतलवाड़ को हैदराबाद और बरेली की हिंसा नही दिखती है आज पुराने हैदराबाद और बरेली मे क्या हुआ क्या इसके लिए तिस्ता सीतलवाड़ या सिर्फ तिस्ता ही क्यो उन तमाम तथाकथित धर्मनिरपेक्षवादी और मीडिया के खास वर्ग ने कभी यह मांग की बरेली और हैदराबाद दंगे की जांच के लिए कमेटी बनाई जाए और आयोग की स्थापना की जाए .क्या इसके लिए कभी भी कोर्ट मे किसी ने कोई याचिका लगायी जवाब है नही क्रमश: ....