(लगभग हम सबके सामने जीवन में वो क्षण आते होंगे जब वे आपको छोड़ देते हैं...या लड़ाई से पीछे हट जाते हैं जिनसे आप ने लड़ना सीखा होता है....तब वाकई लड़ाई में बने रहना मुश्किल होता है....पर हमेशा ये ज़रूरी नहीं कि कृष्ण के साथ होने पर ही अर्जुन लड़े...आज के वक्त में तो बिल्कुल नहीं....ये कृष्ण से अर्जुन का संवाद है....जो आज के उन सभी अर्जुनों के लिए है, जिनके कृष्ण कौरवों संग खड़े हो गए हैं....)
मेरे रथ पर
अब
वो सारथी नहीं है
जिसने
मुझे विराट स्वरूप
दिखाया था....
एक पार्थ को जिसने
गीता सार समझाया था...
मेरे साथ
अब
वो महारथी नहीं है
जिसने मुझको
अपनों से लड़ने की
ताक़त दी थी
जिसने मुझे
तुम सब पर
गांडीव उठाने की
हिम्मत दी थी
अब
वो तात नहीं है....
जिसकी सेना
कौरवों के हाथ थी
पर जिसकी प्रेरणा
पांडवों के साथ थी
जिसके शब्द को
हमने हमेशा
अर्थ समझा
अब वो शब्दार्थ नहीं है....
जिसके सुदर्शन
के दर्शन
रोज़ होते थे
जिसके तेज से
सूर्य सोते थे
अब
वो तेजस्वी नहीं है....
अब कृष्ण
अपनी सेना के
साथ हैं
और सेना
कौरवों के हाथ है....
तो क्या अर्जुन
गांडीव की प्रत्यंचा
उतार देगा
क्या अपने अंदर
ठूंस के भरे गए
गीता सार को
मार देगा
अगर अब साथ
मनमोहन ओजस्वी नहीं....
तो क्या पार्थ
अब
पीछे हट जाएगा
हाथ बांधे
अरि कौरवों के
असि से कट जाएगा
या उनके सामने सर झुका
हारे हुए सा
लज्जित खड़ा होगा
क्षमा की याचना में
अब
वो अर्जुन भी नहीं....
जानता है
वो
कहां करना है उसको
बाण का संधान
तुमने ही दिया था
ज्ञान
समझता है वो
भली भांति
कि क्या है मित्र शत्रु
तुमसे ही मिली
पहचान
और तुमसे ही है सीखा
कि उसे लड़ना है
अब बस
और तब तक
न होवे
जीत का विश्वास
जो है कौरवों का नाश
और अब जब
कूटनीतिक कृष्ण
जाकर कौरवों के संग
खड़ा है
देख अब भी सामने
कुरुक्षेत्र में
अर्जुन खड़ा है
ज़िद पर अड़ा है
हे तात!
ये लड़ना और अड़ना
तुमसे ही था सीखा......
मयंक सक्सेना
mailmayanksaxena@gmail.com
बेहतरीन कविता भाईजान.....
ReplyDeleteशानदार...
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ReplyDeleteकृष्ण को जब भी मिला ताना मिला,
ReplyDeleteएक वंचित समर में, जिसमें वो महज़ एक सारथी था,
योद्धा के संकट पर,
सिर्फ रुक जाना मिला
जो स्वयम्भू कृष्ण हैं. वे स्वयम्भू अर्जुनों के,
दंश सह कर,
कौरवों के पांडवों के वंश सह कर,
कायर युधिष्ठिरों और कातर अर्जुनों के बीच,
जो रहे थे किसी और के धनुष की प्रत्यंचा खींच,
द्रोपदी ने खुद ताजा था चीर,
कृष्ण अर्जुन की कथा,द्रोपदी की एक पाखंडी व्यथा
न्याय करने बैठ जाएँ कुरु गुरु ध्रतराष्ट्र
कहाँ अर्जुन, कहाँ गीता, कहाँ कृष्णों की विसात,
और दिनकर कह गए हैं,
जो तटस्थ हैं-समय लिखेगा उनका भी अपराध
न मैं योद्धा,न में सेना,न किसी का ताप छीना,
किन्तु रणछोर नाम मेरा है ज़रूर,
टूट जायेगा गुरूर,
उन सभी का जो सिर्फ पाखंड पर और परावर्तीत प्रभा पर जी रहे हैं,
मित्र अर्जुन, हर किसी की निजी अपने युद्ध होते हैं,
अस्त्र अपने हों तभी तुम जीत पाओगे,
दूसरों के कवच में,
कब तक काय छिपाओगे
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ReplyDeleteis path ka uddeshya nahi hai shrant bhavan mein tik rehna kintu pahuchna us seeme tak jiske aage raah nahi....
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