इसी साल २२ फरवरी को एक नज़्म लिखी थी आज दीवाली पर बेहद याद आ रही है.....ज़िन्दगी में रोशनी की अहमियत अक्सर तब समझ आती है जब वो जा रही होती है....या जा चुकी होती है....प्रकाश पर्व केवल प्रकाश के आने की खुशी ही नहीं है...बल्कि उसके पहले अंधेरों से जो लड़ाई लड़ी गई है.....उसका स्मारक भी है....यादगार है अंधेरों के उस सफर का जिसे तय कर के उजालों तक हम आ पहुंचे हैं.....पेश है नज़्म रौशनी के त्यौहार के इस ख़ास मौके पर.....
दीवारों से टकराता रस्ता ढूंढता हूं
अक्सर अंधेरों में घूमता हूं
दीवारों पर लिखी इबारतों का मतलब
साथ खड़े अंधेरों से पूछता हूं
अक्सर अंधेरों में घूमता हूं
टटोलता खुद के वजूद को
अपने ही ज़ेहन में मुसल्सल गूंजता हूं
अक्सर अंधेरों में घूमता हूं
बार बार लड़ अंधेरे में दीवारों से
बिखरता हूं, कई बार टूटता हूं
अक्सर अंधेरों में घूमता हूं
अकड़ता हूं, लड़ता हूं, गरजता हूं
अंधेरे में, अंधेरे को घूरता हूं
अक्सर अंधेरों में घूमता हूं
अहसास है रोशनी की कीमत का
दियों की लौ चूमता हूं
अक्सर अंधेरों में घूमता हूं
हर तीन दीवारों के साथ
खड़ा है दरवाज़ा एक
बस इसी उम्मीद के सहारे
अक्सर अंधेरों में घूमता हूं
आख़िर में एक बार फिर रौशनी के जलसे और जीत के जश्न की बधाई पर इस पैगाम के साथ कि उन अंधेरों को कभी ना भूलें जो आड़े वक़्त साथ थे......
मयंक सक्सेना
+91-9310797184
अपने मनॊभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं। बहुत सुन्दर रचना है बधाई।
ReplyDeleteअहसास है रोशनी ,
ReplyDeleteदियों की लौ भी कर लेगी दीदार
टटोल खुद का वजूद,
अन्धेरों में ,अन्धेरे कर लेंगे इंतज़ार