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Saturday, November 28, 2009
विकिपीडिया सियासी बकवास का ...आईने में लिब्रहान
Thursday, November 26, 2009
हमें नहीं आता
ग़म के साथ ए हसीना हमें जीना नहीं आता
मोहब्बत तो हम भी करते हैं,
मगर ठुकराए इज़हार पर पीना हमें नहीं आता
मयख़ाने की शिरक़त हम अक्सर किया करते हैं,
मगर बस्ल ए इंतज़ार में, आंखे भिगाना हमें नहीं आता
क़ॉलेज के गेट पर हो खड़े,
राह तेरी तकता ज़रूर हूं, मगर क्या करूं
दिल को एक जगह टिकाना हमें नहीं आता
दुनिया के हुज़ूर से कहना ज़रूर, बुरक़े के भीतर छुपे
बदन पर इतराना हमें नहीं भाता
कनखियों से सुरमाई आंखे क़हर ढाती तो हैं
मगर पसंद इस तरह किसी को
बहकाना हमें नहीं आता
सुर्ख आफताब से गालों पर लेकर डिंपल हंसना हसीना
तुम्हे पाने की मशक्कत में पसीना बहाना हमें नहीं आता
होगी नवाब की भोपाली झील तेरी नीली आंखे
मगर इन आंखों की चाह में आंसु बहाना हमें नहीं आता
गुलाबी बाग की हसरतें हैं,तेरे होठों की तरह फड़फड़ाने की
मगर असल में बस्ल की चाह में
सब कुछ लुटाना हमें नहीं आता
चले जाओगे ज़िंदगी से क्या समझते हो
ख़ुदा की नेमत "जान" इस तरह गंवाना हमें नहीं आता
एक बात तुमसे कहे देता हूं,
मेरी "जान" मेरे बदन में नहीं ,
बसती है तुममें बताना हमें नहीं आता
वरुण के सखाजी
पत्रकार
ज़ी24घंटे,छत्तीसगढ़
9009986179
हमें नहीं आता
ग़म के साथ ए हसीना हमें जीना नहीं आता
मोहब्बत तो हम भी करते हैं,
मगर ठुकराए इज़हार पर पीना हमें नहीं आता
मयख़ाने की शिरक़त हम अक्सर किया करते हैं,
मगर बस्ल ए इंतज़ार में, आंखे भिगाना हमें नहीं आता
क़ॉलेज के गेट पर हो खड़े,
राह तेरी तकता ज़रूर हूं, मगर क्या करूं
दिल को एक जगह टिकाना हमें नहीं आता
दुनिया के हुज़ूर से कहना ज़रूर, बुरक़े के भीतर छुपे
बदन पर इतराना हमें नहीं भाता
कनखियों से सुरमाई आंखे क़हर ढाती तो हैं
मगर पसंद इस तरह किसी को
बहकाना हमें नहीं आता
सुर्ख आफताब से गालों पर लेकर डिंपल हंसना हसीना
तुम्हे पाने की मशक्कत में पसीना बहाना हमें नहीं आता
होगी नवाब की भोपाली झील तेरी नीली आंखे
मगर इन आंखों की चाह में आंसु बहाना हमें नहीं आता
गुलाबी बाग की हसरतें हैं,तेरे होठों की तरह फड़फड़ाने की
मगर असल में बस्ल की चाह में
सब कुछ लुटाना हमें नहीं आता
चले जाओगे ज़िंदगी से क्या समझते हो
ख़ुदा की नेमत "जान" इस तरह गंवाना हमें नहीं आता
एक बात तुमसे कहे देता हूं,
मेरी "जान" मेरे बदन में नहीं ,
बसती है तुममें बताना हमें नहीं आता
वरुण के सखाजी
पत्रकार
ज़ी24घंटे,छत्तीसगढ़
9009986179
Tuesday, November 24, 2009
सबकी मिली भगत सबको फायदा
एक बार फिर आंतक के लिए एक जुट होते देश के सामने वही दो सवाल आएंगे एक आंख मेरी धर्म कहलाती है दूसरी राष्ट्र..मैं किसे क़ुर्बान करूं...मुस्लिम कठमुल्लों को पटरी पर दौड़ती ज़िंदगी को फिर एक बार पाक में बैठे आक़ाओं की उस बात को साबित करने का मौक़ा मिल गया है जिसमें वो अक्सर भारतीय मुस्लिमों को हिंदुओं से दूर रहने की सलाह देते हैं..कहा करते है उनके हित भारत में नहीं बल्कि भारत के भीतर एक और पाकस्तान बनाने में हैं....सीमापार के ये तथाकथित इस्लाम के प्रचारक सक्रिय हो गये हैं..और सबसे बड़ी बात इस रिपोर्ट की ये है कि इससे निकलने वाले राज़ दरअसल राज़ हैं ही नहीं...सब खुली ख़िताब की तरह पढ़ा, समझा जा सकता है। रिपोर्ट लीक हुई अफसोस ये नहीं जिस वक्त लीक हुई वो समय राष्ट्रीय एकता और गौरव को नये आयाम देने वाला है...इसी महीने के आखिरी सप्ताह में मुम्बई हमले की सालग़िरह होगी और देश के दूसरी बड़ी आबादी इस बात से आशंकित और आतंकित होगी कि कहीं फिर भगवा सेना सक्रिय होकर कुछ ऐंसा ना करने लग जाए जो 1992 का दोहराव हो....उनके हाथों में ज़रूर शोक के प्रतीक कैंडल,काली पट्टी या कुछ और हो सकता है हो मगर दिल में एक भय खौफ और ख़तरनाक यादें होंगी वो जो बात उस पीढ़ी को नहीं बताना चाहते थे जो उस वक्त पैदा नहीं हुई थी...वो पीढ़ी ख़ुद ही सब जान जाएगी...
अब सवाल ये उठता है कि आखिर रिपोर्ट इसी वक्त क्यों लीक हुई या कराई गई...ये कोई परीक्षा का पर्चा नहीं जो बदमाशों ने लीक किया हो या गैस पेपर नहीं है..बल्कि देश की अस्मिता औऱ मान गौरव सम्मान के साथ राष्ट्रीय शांति का मसला है...इसके पीछे सरकार का हाथ है या जो भी है, कोई माइने नहीं रखता ये बात अल्हदा है।
इस रिपोर्ट के नजदीकी बुरे असर और दूरगामी बुरे असर दोनो पर हम इन बिंदुओं पर सोचते हुए विचार कर सकते हैं..
पहला देश के मुखिया का बाहर होना और रिपोर्ट का लीक होना-मनमोहन सिंह एक मंझे हुए खिलाड़ी है वे इसका ठीकरा अपने सिर नहीं लेना चाहते अब तक उनकी छवि सीधे सरल औऱ काम के प्रति निष्ठावान की बनी हुई है..औऱ फिर वे अपने वाक् चातुर्य के आभाव में गरम मुद्दे पर बहस में बुरे फंस भी सकते थे..
दूसरा इसी बीच उनका पाकस्तान के लोकतांत्रिक अस्तित्व पर सवाल खड़ा करना कि कौन है वहां जिससे बात की जा सके याने पाकस्तान की ज़म्हूरियत भारत की नज़र में बोगस है असल ताकत वहा के सेना नायकों और तालिबानियों में है...जो कि सच भी है..इस बयान ने वैश्विक पटल पर एक नई सोच और बहस दोनों ही समान रूप से रखी हैं..जिसमें शर्म-अल-शेख के साझां बयान का पश्चाताप भी शामिल है..
तीसरा गन्ना के गड़ने से कांग्रेस नीति संप्रग में ठीकराबाज़ी से लोगों औऱ विपक्ष का ध्यना पूरी तरह से हटाना....
तीसरा स्पेकट्रम घोटाले को सेफसाइड करना....चौथा कोड़ा पर पड़ रहे कोड़ों को भले ही केंद्र ने ही परोक्ष समर्थन दिया हो लेकिन पार्टी इसे तह तक नहीं ले जाना चाहती कांग्रेस के पुराने सहयोगी कोड़ा ने घोटाला नहीं किया बल्कि झारखण्ड के सीएम की करतूत है..याने कोड़ा और कांग्रेस का मेल कमतर दिखाना...पांचवा औऱ आखिरी भाजपा ने राव को घेरा तो कांग्रेस कैसे चुप रहे वो ऐंसा काला चिठ्ठा लेकर आई जिसने उसे फिर बूस्ट कर दिया।
वास्तव में सियासी दांव बड़े गहरे होते हैं...बाबरी के जिन्न को निकालना...वंदेमातरम् पर फतवे वाली सभा में परोक्ष रूप से रहना सबके बड़े गहरे माइने हैं...जिन्हे आम आदमी नहीं समझना नहीं चाहता..
इससे जो देश का माहौल बनेगा वो भाजपा या किसी औऱ भगवा का नुकसान नहीं होगा..बल्कि डूबती बिखरती पार्टी को फिर एक बार स्थापित होने का मौका मिलेगा वहीं सपा जो मुस्लिम परस्ती से कुछ दिन बाहर आई थी वो फिर उसी कूप में डूब जाएगी..वहीं ये सत्र तो गया जिसमें देश के बड़े मुद्दों पर चर्चा होनी थी..कुल मिला कर ऐंसा लगा कांग्रेस को मुद्दों से बचने का फायदा..भाजपा को रिस्टेंड होने का फायदा सपा को फिरका ताकतों का प्यार दोबारा मिलने की संभावनाओ का फायदा होता दिखाई दे रहा है जो साबित करता है कि शायद ये सर्वदलिय रमनीति थी जो सर्वदिलीए भारत को सियासी सौहवत के बुरे असरों के रूप में मिल रहीं है..
लिब्रहान रिपोर्ट लीक हुई कराई गई जो भी हुआ मतलव नहीं बहरहाल इससे ये ज़रूर लगता है कि जनता को अब नेता खुले आम मूर्ख बनाने लगे हैं..जिसमें कोई हिंदू नहीं कोई मुस्लिम नहीं हौ बल्कि सिर्फ एक आदमी है जिसे नेता वोटर कहते हैं। कल्याण कब भगवा भगवान छोड़ सपाई हो जाते हैं..मौहभंग होने या उपेक्षा से फिर भगवा छत्ते के आस-पास मंडराने लगते है कब उमा को पार्टी की उपेक्षा बुरी लगती है औऱ कब वो अटल आजवाणी को बाप समान कहने लगती है पवार कांग्रसे से अलग होते हैं लेकिन फिर वही लोगो के बीच साझा हो जाते है.शिबु कल तक साथ आज नहीं लालू संप्रग के घटक रहे तो लगने लगा वे इससे बड़े हो गये हैं तो बिहार में कैसे कांग्रेस को आने दे झगड़ा कुर्सी टेबल सब कुछ नाचक ..ना जाने कब किस नेता को क्या अच्छा बुरा लग जाता है पता नहीं चलता इतना खुल कर किसी राज या युग में जनता को नहीं छला गया। इसलिए किसी रिपोर्ट, सर्वे, और साराशों पर ना जाए बल्कि सीधे सियासत की अंधी चाल को समझें...
वरुण के सखाजी
पत्रकार ज़ी24घंटे,चत्तीसगढ़
रायपुर
09009986179
sakhajee@yahoo.co.in
Saturday, November 21, 2009
खेती की सियासत
छत्तीसगढ़ राज्य देश के नक़्शे पर उस वक़्त उभरा जब समूचा राष्ट्र नेताओं से सवाल कर रहा था कि आखिर देश में कभी गठबंधन की सरकार स्थायित्व दे पाएगी या य़ूं ही कभी किसी वजह से तो कभी किसी वजह से लड़खड़ाती और गिरती रहेगी...इसी के साथ 2 राज्यों ने भी अपना जीवन शुरू किया लेकिन इनमें से सिर्फ़ छत्तीसगढ़ है जो स्वस्थ है झारखण्ड तो जैसे बुरी तरह से बीमार है...अस्थिरता तो अस्थिरता देश का तबसे बड़ा घोटाला भी यहां सामने आया...लेकिन राज्य छत्तीसगढ़ अपनी ज़िंदगी की नई इबारत लिख रहा है...राज्य में रमन की सरकार बड़ी लोकप्रिय और कर्मठ है इसमें कोई शक नहीं।
लेकिन इस राज्य में भी वोट की राजनीति की जाती है..विधायकों की खरीद-फरोख्त तो अब पुरानी बात हो गई लेकिन बेमतलव का औबिलीगेशन जारी है...देश का सबसे बड़ा विद्युत उत्पादक होने के नाते राज्य को एक अल्हदा पहचान भी मिली हुई है...लेकिन क्या रमन सरकार को येन वक्त पर किसानों के आंदोलन के सामने हथियार डाल देने थे...धमतरी की हिंसा से घवराए सीएम ने ये फैसला इतने जल्द लिया कि कोई सोच भी नहीं सका...माना कि देश में किसानों से किसी को भी द्वेष नहीं होगा इन्हें कइयों रियायतें भी दी जानी चाहिए ताकि किसान अपनी तंग ज़िंदगी से परेशान ना हो औऱ खेती घाटे का सौदा क़तई ना रहे...लेकिन इन सबके बीच क्या सरकार को इन बातों पर ग़ौर नहीं करना चाहिए...
पहला राज्य़ के किसानों को मुफ्त बिजली देने से खज़ाने पर पड़ने वाले भार की पूर्ती कहां से की जाएगी।
दूसरा 200 करोड़ के अधिभार से राज्य के शेष विकास कार्यों पर क्या फर्क पड़ेगा
तीसरी क्या महज़ बिजली देने से किसान खुश हो जाएंगे या फिर उनकी वाकई यही समस्या है
चौथा इसकी क्या व्यवस्था की गई है कि खेतों में सिंचाई के नाम पर कनेक्शन लेकर इसका दुरूपयोग नहीं होगा जिसमें विभागीय कर्मी भी शामिल होते हैं
पांचवा क्या इस फैसले से राज्य के कर्मठ किसानों की कर्मठता पर असर नहीं होगा. या फिर वे हर मौकों पर सरकार के सामने हाथ फैलाए खड़े नहीं हो जाए जिससे किसानों की कर्मठता तो ख़त्म हो ही जाएगी साथ ही प्रदेश भविष्य में आंदोलनों और सरकारों पर पूरी तरह से निर्भर हो जाएगा, हालाकि ये देश की समस्या है लेकिन इसके पीछे नेता वोटिंग कॉज देकर बच निकलते हैं...
छठा क्या इस तरह मुफ्त बिजली बांट कर सरकार दोबारा पॉवर एक्सीलेंसी एवार्ड जीत सकेगी
सातवां क्या सरकार ये भूल गई कि इसी साल गर्मियों में बढ़ते पावर लोड के कारण राज्य सरकार को केंद्र के सामने अपने एनटीपीसी वाले कोटे के लिए ज़द्दोजहद करनी पड़ी थी
आठवां क्या सरकार भूल जाती है कि छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत मंडल का ख़ुदका कुल उत्पादन दोनों स्रोतों , पनबिजली और थर्मल बिजली से 2200 मेगावॉट तक ही पहुंचता है..जबकि सरप्लस का मतलव आईपीयू औऱ सीपीयू की बिजली होता है..
नौवां क्या सरकार इस बात को नहीं जानती कि यही बिजली बेंच कर राज्य को करोड़ों का लाभ होता है..
दसवां क्या यही किसान प्रेम है...जिसमें खजाना लुटाया जाए...अगर ऐंसा है तो फिर सभी किसानों को कह देना चाहिए कि वे खेतों पर ना जाए बल्कि किसी शेड के नीचे बैठ कर आंदोलन करें।
ये महज़ वोट की राजनीति होती है..जिसे राजनीति के चतुर सुजान रमन सिंह ने क्यों किया इस पर नज़र डालते हैं..
पहला इस मुद्दे पर कांग्रेस की सियासी बढ़त को ख़त्म करना जो वैशालीनगर परिणामों के बाद सामने आई है...
दूसरा अगर मुद्दा आगे बढ़ा जाता तो रियायतें देने के बाद भी श्रेय कांग्रेस को जाता और अगर रियायतें नहीं दी जातीं तो रमन की चांउर वाले बाबा की वोटिंग इमेज पर बुरा असर पड़ता
तीसरा कांग्रेस को बे-मुद्दा करके साबित करना कि सरकार चहुंओर विकास की लहर चला रही है इससे देश की सियासत में सीएम का रुतबा तो बढ़ता है साथ ही डॉ.रमन सिंह की पार्टी के भीतर बेहतर छवि भी बनती...यानें वे एक अच्छे प्रबंधक भी बन जाते...जो कि उन्हे शिवराज से आगे निकलने में मदद करता..गौरतलब है कि शिवराज के डंपर घोटाले ने उनकी पार्टी के भीतर छवि को कम किया है जो एक खराब प्रबंधन का नतीज़ा माना गया है, ऐंसी ही सूझ-बूझ धान घोटाले के वक्त दिखा कर साबित किया था..इन सबसे सीएम का क़द लगातार बढ़ा है..
लेकिन क़द के चक्कर में प्रदेश के साथ बड़ा अन्याय हो सकता है..
किसी भी नेता से पर्सनली पूछा जाए तो वो यही कहता है कि ये सब हमारी सियासी मज़बूरी है वरना हम भी ऐंसा नहीं चाहते...लेकिन इसका समाधान किसी के पास नहीं किसानों की राजनीति अब जोरों पर है हालाकि देश के बड़े नेता मुलायम हों या लालू सभी ने किसानों की नौका का इस्तमाल किया है यहां तक कि अजीत सिंह तो हरित प्रदेश को लेकर किसान पुत्र के नाम से ही जाने जाते हैं...ऐंसे बहुत से नेता हैं जो किसानों के हितैषी कहे जाते हैं..नवीनतम् घटनाक्रम में गन्ना किसानों की बात की जाए तो कांग्रेस के यू-टर्न और शरद पवार पर ठीकरे ने फिर साबित किया कि किसान बड़ा वोट बैंक है...लेकिन सालों से किसानों के हित की बात की जा रही है और ऐंसा नहीं है कि किसी किसान नेता को किसानों के लिए कुछ करने का मौका ना मिला हो कम या ज्यादा सभी को मौका मिल चुका है लेकिन इस सबके बाद ही से किसानी में इज़ाफ़ा किसी नेताई करिश्में से नहीं बल्कि उद्योगपतियों के नये प्रयोगों से हुआ है...जिसमें देश के इंडस्ट्रीयालिस्ट्स ने खेती के उपकरण आमलोगों तक सस्ते दामों पर पहुंचाए...जिससे खेती मौसम के चंगुल से किसी हद तक बाहर आ सकी...सरकारी स्तर पर भी कोशिशें क़ाबिले तारीफ़ हैं...लेकिन पर्टीकुलर नेता इसका श्रेय नहीं ले सकता भले वो इस नाम पर वोट लेले।
अब बात करते हैं सरकारी मदद और किसानों के उत्थान की तो ये कहना ग़लत ना होगा कि इसके बाद से ही किसानों की मेहनत पर उल्टा असर पड़ा है...गांवों में अपराध बढ़ा है, और हद तो तब हो जाती है कि देश के भंडारण में अनाज इतना कम पड़ जाता है कि बाहर से आयात करना पड़ जाता है...राज्य छत्तीसगढ़ की बात की जाए तो देश के कुल चावल उत्पादन का बड़ा हिस्सा राज्य का है लेकिन शायद मौसम की बैरूखी से ज़्यादा सरकारी योजनाओं के कारण 20 सालों बाद देश को चावल का आयात करने पर मज़बूर होना पड़ा....
वरुण के सखाजी
पत्रकार ज़ी24घंटे छत्तीसगढ़ रायपुर
Read me at sakhajee.blogspot.com
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Sakhajee@gmail.com
Wednesday, November 18, 2009
हैडली नहीं हैदर अली...
Monday, November 16, 2009
जन्मदिन मुबारक जनसत्ता
Friday, November 13, 2009
प्रभाष जी की आत्मा को भगवान कभी शांति नहीं दे...
Tuesday, November 10, 2009
खूब अच्छा लिखो...यही आर्शीवाद मिला...
बिना मुंह धोये कंप्यूटर खोला और पीटीआई की वेबसाइट देखी, हिमांशु की बात सच थी.... तब भी विश्वास करना सहज न था सो टीवी ऑन किया और तमाम चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ चलती पायी। दिमाग ने जैसे कुछ देर के लिए काम करना बंद कर दिया तो इन्टरनेट पर उनकी तस्वीरें तलाश करता रहा। सुबह सवा छः के करीब अपने ब्लॉग पर एक श्रद्धांजलि की पोस्ट डाली और साढ़े छः बजे आलोक जी को फ़ोन लगाया, फ़ोन उठते ही एक अजीबोगरीब सवाल पूछा,"सर, कहां हैं आप?" उधर से उत्तर आया, "एम्स में हूं बेटा, रात से ही हूं।"
मैंने फिर कहा, "सर हिमांशु का फ़ोन आया था....क्या वाकई..." फिर दोनों ओर सन्नाटा छा गया और फिर आलोक जी की भर्राई हुई आवाज़ आई जो शायद मैंने पहली बार सुनी थी," हां, दिल का दौरा पड़ा था...मैच के बाद........मैं तो अनाथ हो गया!" मैं जब कुछ सेकेण्ड तक कुछ नहीं बोला तो आलोक जी की आवाज़ आई, "पार्थिव देह साढ़े आठ बजे तक वसुंधरा पहुंच जायेगी...." इसके बाद ज्यादा कुछ कहने की गुंजाइश ना पा के मैंने बस इतना ही कहा, "जी मैं पहुंचता हूँ..."
इसके बाद यशवंत भाई को ख़बर दी और मैं निकल पडा वसुंधरा के लिए.... प्रथम तल पर वही कमरा जहाँ उनसे मिलने वालों के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव हुआ करता था.... प्रभाष जी का शरीर निर्जीव रखा था। झुक के फूल उठाये, चरणों में डाले और जैसे ही उनके पैर छुए, तुरंत याद आ गया उनका वो आर्शीवाद जो उन्होंने पहली बार चरण छूने पर दिया था...."खूब अच्छा लिखो...." और उसके बाद की हर भेंट में उन्होंने यही आर्शीवाद दिया था। भर आई आंखों को पोंछना शुरू किया तो देखा कि कमरे में तमाम लोग खड़े मेरे ही जैसे स्मृति यात्रा में खोये हुए हैं.... नीचे उतरते उतरते सब कुछ एक एक कर के आंखों के सामने घूमता जा रहा था। प्रभाष जी से पहली मुलाक़ात भोपाल में हुई थी एक कार्यक्रम में, उनसे जब गुरुजनों ने मिलवाया तो लपक कर उनके पैर छू लिए और कहा, "आपको तो बहुत पहले से जानता हूँ..." प्रभाष जी बोले,"अपन कहीं मिले हैं क्या भाई?" मैंने तपाक से कहा, "आप तो नही पर हर हफ्ते मैं आपको मिलता हूँ जनसत्ता में!" ठठा के हँसे प्रभाष जी और जोर से बोले कि ये सब लड़के बहुत आगे जायेंगे.... और पहले सर पर हाथ फेरा और फिर चिरपरिचित अंदाज़ में कांधे पर हाथ रख के काफ़ी देर खड़े छात्रों से बतियाते रहे। चलते पर चरण छुए तो वही आर्शीवाद,"खूब अच्छा लिखो!"
उस रात ऐसा लगा कि पता नहीं क्या हासिल कर लिया हो, उस गुरु के दर्शन हो गए जिसको पढ़कर लिखना सीखा। उसके बाद कई बार प्रभाष जी से मुलाक़ात हुई। तीन चार बार भोपाल में और फिर गाजियाबाद और नोएडा में। नौकरी में आने के बाद एक बार उनको फ़ोन किया तो झट से पहचान गए और बोले, "अच्युता (अच्युतानंदन मिश्र) के चेले हो ना... कहां नौकरी लगी?" मैंने जैसे ही उनको बताया कि ज़ी न्यूज़ में तो छूटते ही बोले, "भइया, अच्छा लिखते हो अखबार में क्यों नहीं गए ?" मैं जानता था कि मेरा कोई भी तर्क काम नहीं करेगा सो चुप ही रहा तो बोले,"अरे कोई बात नहीं, काम में मन तो लग रहा है ना.... दरअसल अपन ठहरे पुराने आदमी, अपन को अखबार ही समझ में आता है...." उसके बाद उनके वसुंधरा वाले घर जाकर उनसे मिला और उनकी लाइब्रेरी भी देखी.... कुमार गन्धर्व को भी सुना। साथ बैठा तो आधे घंटे पूरा जीवन वृत्त पूछ डाला, ये भी पूछ लिया कि "पत्रकारिता कर रहे हो तो इंजीनियरों से भरा परिवार संतुष्ट है?" कुमार गन्धर्व के गायन की वो बारीकियां समझायी कि मेरा संगीत का ज्ञाता होने का दंभ चूर चूर हो गया।
इसके बाद चैनल की नौकरी की कृपा से उनसे स्टूडियो में मिलना हुआ. हर बार एक नए विषय पर चर्चा होती पर एक विषय हमेशा वही रहता और वो था क्रिकेट। क्रिकेट के लिए उनका जूनून हमारी पीढी को भी मात देता था। एक बार मैंने गलती से उनके सामने सचिन की बुराई कर दी तो बोले,"भइया, सचिन का भी कोई मुकाबला है क्या और अगर केवल मैच जिता देने के लिए खिलाड़ी खेलेगा तो खेल की कला और लय दोनों ख़त्म हो जायेंगी।" और चलते पर जब भी पांव छुए फिर वही चिर-परिचित आर्शीवाद,"खूब अच्छा लिखो"
उनसे आखिरी बात अभी करीब १५-२० दिन पहले हुई, इधर तहलका में उनका स्तम्भ छपने लगा था, उसे नियमित पढ़ रहा था और उसी को पढ़ के फ़ोन किया। उस पर चर्चा करते करते जब अनायास मैंने पूछ लिया कि इस उम्र में भी आप इतना लिखते हैं और इतने जीवंत हैं तो बोले की होना ही चाहिए नहीं तो जीवन भर का श्रम और पढ़ाई लिखाई व्यर्थ है, की उम्र भर लिखते पढ़ते रहो और अंत में चुप हो के बैठ जाओ। दैनिक जागरण वालों की पैसे लेकर ख़बर छपने की कहानी सुनाने लगे और नए पुराने दोनों मालिकों की बात की। फिर बोले,"भइया, अपन को जो लगता है वही बोलते हैं....और जैसा बोलते हैं वैसा ही लिखते आए हैं!" और उसके बाद जब फ़ोन रखने लगा तो बोले, "फ़ोन कर लिया करो, घर आओ तो और सुकून से बात करेंगे पर नवम्बर के दूसरे हफ्ते के बाद आना....अभी तो बहुत सफर करना है।"
और इसके बाद प्रभाष जी वाकई जीवन के सबसे लंबे सफर पर निकल गए.... और मैं इंतज़ार ही करता रह गया.... उनके घर उनके बिना बुलाए ही गया.... नियत समय से पहले ही गया.... नवम्बर के पहले हफ्ते में.... वो मिले.... सामने ही थे पर उनसे इस बार ना तो क्रिकेट पर ही बात हुई, ना ही कुमार गन्धर्व पर.... और इस बार उन्होंने एक साथ ही सबको बुला लिया था, वो जो उन्हें बचपन से जानते थे.... वो जो उनकी ज़िन्दगी का हिस्सा थे.... वो जो उनके सहयोगी थे.... वो जिन्होंने उनसे सीखा.... वो जो उनके विरोधी थे.... और वो भी जो उनसे कभी नहीं मिले थे... प्रभाष जी अब आप की कलम किसी भी कागद को कारा नहीं करेगी, पर आपका लिखा पढ़ कर हमने जो सीखा है उसे हम सारे एकलव्य हमेशा याद रखेंगे... और जब तक हाथों में कलम रहेगी, जेहन में आप रहेंगे.... आखिरी में वो बात जो मुझसे हिमांशु ने कही, "हमने.... हम सब ने अपने जीवन काल में कोई महापुरुष नहीं देखा, पर हम इतना ज़रूर कह पायेंगे कि हमने प्रभाष जी को देखा था..."
Monday, November 9, 2009
प्रभाष जी का जाना ...
प्रभाष जी चले गए। सचिन और क्रिकेट के दीवाने से टीम इंडिया की ऐसी रुसवाई देखी नही गई। सचिन जब आउट होता है और इंडिया हार जाती है तो क्रिकेट प्रेमी अक्सर दर्शक दीर्घा या कमरा छोड़ जाते हैं। प्रभाष जी दुनिया ही छोड़ गए। अगर वो होते तो निश्चित तौर पर सचिन की इस बेमिसाल पारी को कई मिसालें और मिलतीं।
मृत्यु से कुछ घंटों पहले ही वे जनसत्ता लखनऊ की उसी कुर्सी पर बैठे थे जहाँ बैठकर मैंने इस संस्थान में पत्रकारिता के गुर सीखे थे। यहाँ के ब्यूरो चीफ अम्बरीश कुमार की तबियत नासाज़ थी तो उनका हाल जानने आए थे, जिद करके और जाते-जाते अभिभावक की तरह झिड़की भी दे गए थे "अपना ख्याल रखा करो" । इत्तेफाक से जब मैंने फ़ोन किया तो पत्रकारिता के बीते दौर की चर्चाएं चल ही रहीं थीं। मैंने न जाने कितने ही लोगों को बताया की आज जोशी जी लखनऊ में थे। कुछ ही वक्त बाद जब उनके जाने की ख़बर सुनी तो यकीं ही नही हुआ।
जनसत्ता ने हमेशा मुझे अपनी तरफ़ खीचा है। मित्र मंडली में जब मैं जनसत्ता जाने के सपने की बात करता था तो दोस्त यही कहते थे की वहां जाना बुढापे में पहले खूब काम कर लो वहां वानप्रस्थ होता है। मुझे जल्दी थी। प्रभाष जी के स्वप्न के साथ जुड़ने की उनके जीवनकाल में ही। अलोक तोमर साहब या अम्बरीश जी को जब प्रभाष जी के विषय में बात करते सुनता हूँ तो रश्क होता है। प्रभाष जी उस जनसत्ता परिवार के अभिभावक थे और मैं इस परिवार का हिस्सा बनना चाहता था। प्रभाष जी जल्दी चले गए या कहें मैंने ही देर कर दी। हो सकता है की कभी जनसत्ता पहुच जाऊं लेकिन उस आकर्षण और जूनून में एकाएक कमी आ गई है। क्यूंकि वो प्रभाष जी से ही था। जोशी जी के बिना जनसत्ता कैसा होगा इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है।
जिस साल बैचके सब लोग हिन्दुस्तान, सहारा, अमर-उजाला और जागरण में इंटर्नशिप करने गए थे मैंने जनसत्ता लखनऊ को चुना था इसलिए ताकि जनसत्ता के अनुभव पर इतरा सकूँ, भले ही ये इन्टर्न के तौर पर ही क्यूँ न हो।
मेरा मिजाज़ भी जनसत्ता के ही करीब था, लखनऊ में जागरण और हिन्दुस्तान की रौनक के सामने भले ही ये उतना चमकीला न दीखता हो लेकिन इसका अलग रंग आपको ज़रूर नज़र आएगा। जैसे की मैं बैच में चमकीला नही था लेकिन कुछ अलग पहचान तो थी ही।
इन्टर्न के दौरान ही पहली बार प्रभाष जी से मिला था। ह्रदय नारायण दीक्षित की किताब के लोकार्पण कार्यक्रम में। हिंद स्वराज और यंगिस्तान पर अद्भुत बोले थे। उसके बाद विश्वविद्यालय में हमारी फेयरवेल पार्टी में आए थे और बोल गए थे की आप भारत के सबसे अच्छे पत्रकारिता संस्थान के हिस्से हैं।
सत्रह नवम्बर को जनसत्ता का जन्मदिन होता है। पत्रकारिता के विद्यार्थी तो प्रभाष जी के हमेशा कृतज्ञ रहेंगे की उन्होंने हिन्दी माध्यम के विद्यार्थियों को एकमात्र पढने लायक अखबार दिया। गज़ब अखबार। जो रिक्शे वाले और गाय की फोटो फ्रंट पेज पर लगाता है। अभी तक पूरी हेडिंग छापता है। उल्टे सीधे विज्ञापनों से दूर है। फिल्मी चर्चाओं में वक्त नही बरबाद करता। संस्कृति पत्रकारिता को अभी तक गंभीर विषय मानता है। साजिद रशीद और तरुण विजय को एकदम ऊपर नीचे छापता है.ये सब प्रभाष जी का दिया हुआ है। सम्पादक वही थे सही मायनों में। जब तक वो रहे मालिक नही चम्बल में डाकुओं का समर्पण और बढ़ी तनखा लेने से इनकार केवल वही कर सकते हैं। नियमों से समझौता नही किया। पत्रकारिता की पूरी एक खेप तैयार की। अलोक तोमर जनसत्ता से जाने के बाद भी उनके भक्त हैं। अम्बरीश जी को मिलने का वक्त नही दिया क्यूंकि मालिक की धौंस लेकर आए थे।
चौथे थाने का ये थानेदार अपने अन्तिम वक्त तक अपराधियों को शिकंजे में लेता रहा। कागद कारे जैसा वृहद् कालम उम्र की इस अवस्था में लिख पाना उन्ही के बस की बात थी। प्रभाष जी के भारत-ऑस्ट्रलिया मैच पर लिखने की उम्मीद थी जो अधूरी रह गई। इस दौर में मैंने पत्रकारिता का एक ही महापुरुष देखा और वो हैं प्रभाष जी। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने भी उनके निधन को खूब-खूब कवर किया। बहुत दिनों बाद उसकी भूमिका से खुशी हुई। प्रभाष जी आपकी सबसे ज्यादा कमी अगर किसी को खलेगी तो वो पत्रकारिता की तरुण पीढी है...