हम जो साक्षर हैं, साहित्य का आदर करने का अभिनय करते हैं। हम में से कुछ हंस, कथादेश और इंटरनेट पर आने वाली पत्रिका पहल और साखी भी पढ़ते हैं। लेकिन साहित्य और साहित्यकारों के प्रति हमारा अनुराग, हमारा आदर और हमारी सहानुभूति सिर्फ दिखावटी हैं।
सबूत चाहिए? जिन काका हाथरसी को पूरी पूरी रात मंच पर सुनते थे, उनके निधन पर एक आंसू भी नहीं बहाया गया। वैसे काका खुद कहते थे कि मैंने जीते जी सबको हंसाया हैं और मेरी मौत पर भी कोई न रोए तो अच्छा होगा। कम लोग जानते हैं कि काका यानी प्रभुदयाल गर्ग संगीत के बाकायदा सिद्व विद्वान थे और उनके संगीत कार्यालय से प्रकाशित किताबें संगीत की पढ़ाई में बाकायदा इस्तेमाल की जाती है।
हम यहां उन कवियों की बात नहीं कर रहे जो गद्य को पद्य कह कर लिखते हैं। लालित्य उनकी रचनाओं में भी होता है मगर वे सिर्फ गद्य लिखते तो हिंदी गद्य का बाकायदा उद्वार हो जाता। एक नाम अशोक वाजपेयी का ले रहा हूं जिनके गद्य पर मुग्ध हुआ जा सकता है मगर कविता एक भी याद नहीं रहती। ऐसे ही और भी रचनाकार है। मगर कवि छंद के बगैर कैसे जीवित रह सकता है। अब कोई मुझे यह समझाने की कोशिश न करे कि गद्य का भी अपना एक छंद होता है और वह भी कविता की तरह आनंद देता है। मेरी विनम्र राय में समाज से, राजनीति से और जीवन से जो छंद गायब हुआ है उसी का भुगतान हम हिंसा और सांप्रदायिकता के तौर पर कर रहे हैं। आखिर राम चरित मानस और विनय पत्रिका के हजारों संस्करण सिर्फ धर्म की वजह से नहीं बिक गए। वेद, उपनिषद और पुराण्ा भी धर्म से जुड़े हैं और गीता सार की तमाम व्याख्याए हो चुकी है मगर वे लोकप्रियता की प्रतियोगिता में कहीं नहीं आते। हरिवंश राय बच्चन शायद पहले कवि थे जिन्होंने कवि सम्मेलनों में जाने का मेहनताना और किराया लेना शुरू किया था। फिर तो कवि सम्मेलनों में बाकायदा कविता का एक माफिया काम करने लगा जो ठेके पर कवि सम्मेलन करवाता था और पूरा पैकेज देता था जिसमें हंसाने के लिए सुरेंद्र शर्मा नामक जोकर होते थे और कुछ गीतकार और कुछ वीर रस की कविताएं लिखने वाले पात्र होते थे। यह माफियागीरी अब भी जारी है। मगर जहां तक छंद की बात है, उसे कोई मात नहीं दे पाया। अमेरिका और यूरोप के देशों में भी कवि सम्मेलन होते हैं और उनमें शायर और कवि दोनों जाते हैं। हमारे विदिशा में जन्में और आज तक चैनल में काम कर रहे आलोक श्रीवास्तव की शायरी का भरी जवानी में बाकायदा सिक्का जमा हुआ है। निदा फाजली है, बशीर बद्र हैं, राहत इंदौरी हैं, सोम ठाकुर हैं, किशन सरोज हैं, नीरज हैं जो हिंदी साहित्य की किंवदंतियों में शामिल हो गए हैं। किशन सरोज बरेली में रहते हैं और कवि सम्मेलनो की ठेकेदारी में शामिल नहीं है। वरना गीत ऐसे लिखते हैं कि बड़ो बड़ो के होश उड़ा दें। बहुत रुमानी रुपक और बहुत मीठी आवाज। सोम ठाकुर आगरा में रहते हैं और उनकी कविता मेरे भारत की माटी है, चंदन और अबीर- वंदे मातरम से कुछ ही कम लोकप्रिय होगी। इसके अलावा वे ब्रज भाषा के छंद भी लिखते हैं, सुदर्शन हैं और किसी भी कवि सम्मेलन की सफलता की गारंटी है। नीरज का नाम ही काफी है। जैसे बच्चन मधुशाला को ले कर मशहूर हुए थे, नीरज की रुबाइयां अपने आप में चमत्कारिक महत्व रखती है। इसके अलावा फिल्मों में साहित्य को स्थापित करने वालों में नरेंद्र शर्मा और शैलेंद्र के बाद या बराबर ही नीरज का नाम आता है। नीरज अकेले कवि हैं जिन्होंने संगीतकारों की धुनों पर नहीं लिखा। आम तौर पर उनकी अपनी कविता की जो ध्वनि होती थी वही संगीतकार फिल्मों में उतारते थे। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि किसी हिंदी फिल्म में अतुकांत कविता गीत के तौर पर इस्तेमाल होगी और हिट हो जाएगी? नीरज ने यह कारनामा भी कर दिखाया। मेरा नाम जोकर का प्रसिद्व गीत ए भाई जरा देख के चलो, में कहीं कोई तुक नहीं हैं और यह भारतीय फिल्म इतिहास का एक सबसे लोकप्रिय गीत है। आराधना फिल्म नीरज के गीतों से ही हिट हुई थी। मगर आज नीरज कहां हैं? अलीगढ़ के अपने घर में खामोशी से बुढ़ापा काट रहे हैं और इन दिनों ज्योतिष का अध्ययन करने का भूत भी उन पर सवार हो गया है। पिछले दिनों मिले तो उन्होंने अंक ज्योतिष और हस्तरेखा के जरिए इतनी सारी भविष्यवाणियां कर डाली कि अपने अस्तित्व पर ही संदेह होने लगा। मगर नीरज को भारत का इतिहास ज्योतिषी के तौर पर नहीं कवि के तौर पर याद रखेगा। साहित्य अकादमी और दूसरी सरकारी संस्थाओं ने साहित्यकारों पर फिल्म बनाने का जो काम शुरू किया है वह स्वागत करने लायक है मगर इन फिल्मों को देखा जाता है तब पता लगता है कि फलां व्यक्ति कवि साहित्यकार या आलोचक था या है। किसी को नीरज, किशन सरोज और सोम ठाकुर पर फिल्म बनाने की बात समझ में नहीं आती। दुर्भाग्य हमारे समय और समाज का है। पहले तो जोकरों और कविता के जॉनी लीवरों ने कवि सम्मेलन नाम की संस्था की, ऐसी की तैसी कर दी और इसके बाद जो गंभीर गीतकार बचे थे वे ठेकेदारी में शामिल नहीं हुए तो उन्हें भी हाशिए पर डाल दिया गया। कवि सम्मेलनों के ठेकेदार बडे बड़े चक्रधारी हैं जो विश्वविद्यालयों में पढ़ाते भी हैं और जानते हैं कि कविता क्या होती है। लेकिन पढ़ाने से ठेकेदारी नहीं चलती। ठेकेदारी जिन लोगों से चलती हैं उनमें कुछ सुंदरियां हैं जो या तो खुद लिखती हैं या दूसरों का लिखा बहुत सुर में गा कर सुनाती हैं। इनकी कविताएं आम तौर पर दो नहीं अनेक अर्थों वाली होती हैं और मुंबई की बार बालाओं की तरह मंच पर इनकी भी उपस्थिति होती है। वीर रस की कविता लिखने में से ज्यादातर लापता हो गए हैं। एक उदय प्रताप सिंह हैं जो सांसद रह चुके हैं और उनसे भी बहुत समय से कविता नहीं सुनी। इसलिए जब तक साहित्य और समाज में छंद वापस नहीं आएगा और उस छंद की गंध को मान्यता नहीं मिलेगी तब तक कवि खुद लिखेंगे, अफसर होंगे तो खुद खरीदवाएंगे और खुद वांचेंगे।
आलोक तोमर
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के सम्पादक हैं।
नीरज जी ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन में लगे हैं, यह नई जानकारी मिली.
ReplyDeleteबाकी, बहुत तीखा है.
nice
ReplyDelete-"हम यहां उन कवियों की बात नहीं कर रहे जो गद्य को पद्य कह कर लिखते हैं। लालित्य उनकी रचनाओं में भी होता है मगर वे सिर्फ गद्य लिखते तो हिंदी गद्य का बाकायदा उद्वार हो जाता।" - पूर्णत: सहमत।
ReplyDeleteपूरा लेख अच्छा है। विचारोत्तेजक व सही बात।
आलोक जी:
ReplyDeleteआप के लगभग पूरे लेख से सहमत हूँ । नीरज जी और सोम ठाकुर जी को अमेरिका आमंत्रित कर यहां के श्रोताओं को चुटकलों से हट कर असली ’हिन्दी कविता’ से परिचय करवाने में शामिल रहा हूँ । सुखद आश्चर्य यह रहा कि श्रोताओं नें उन्हें चुटकुले सुनाने वाले फ़ूह्ड़ हास्य कवियों से अधिक पसन्द किया ।
एक छोटी से गलती की ओर ध्यान दिलाना चाहूँगा । आराधना फ़िल्म में नीरज जी के गीत नही थे । शायद आप प्रेम पुजारी , गैम्बलर , शर्मीली या ’तेरे मेरे सपने’ कहना चाहें ।
गीतकारों की सूची में आप कुँअर बेचैन जी का नाम भूल गये । गीत , नवगीत और गज़ल तीनो ही विधाओं में भरपूर लिखा है उन्होनें और लोकप्रियता में भी नीरज जी के बाद उन्हीं का नाम याद आता है ।
सादर स्नेह के साथ ...
अनूप भार्गव
सचमुच दुखी करता है यह परिदृश्य
ReplyDeleteआपके पूरे लेख से सहमत भी हूं और इस पीड़ा में सहभागी भी।
ReplyDeleteआदरणीय आलोकजी, आपके इस तथ्यपरक व अन्वेषणात्मक आलेख से उन कथित साक्षर और हिंदी की रोटी रोजी वालों की आंख खुल जानी चाहिए। यह मेरे लिए गर्व और गौरव की बात है कि सम्मानीय सोम ठाकुर के शहर का मैं भी रहने वाला हूं। यह भी मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि नीरज, काका हाथरसी, सोम ठाकुर, निर्भय हाथरसी, उदय प्रताप सिंह यादव, ओमपाल सिंह निडर आदि अनेक वरेण्य कवियों के साथ मंच पर काव्यपाठ कर चुका हूं लेकिन जब से कवि मंचों पर माफिया का कब्जा हो गया है। तब से मन में इन मंचों के लिए विरक्ति सी हो गई है। फिर भी नीरज, किशन सरोज, सोमठाकुर आदि अन्य लोकप्रिय कवि इस देश के माथे के चंदन हैं।
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