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Saturday, January 2, 2010

नया साल और नक्सलवाद

नया साल २०१० आ चुका है। इस नए साल में हमारी सरकार और खुफिया एजेंसी रा नक्सलवाद को देश का सबसे बड़ा आतंरिक खतरा बता चुके हैं। मनमोहन ओपरेसन ग्रीन हंट को फिर से शुरू करने की वकालत कर रहे हैं। और चिदंबरम भी इस पर अपनी चिंता व्यक्त कर चुके हैं की देश नक्सलियों को अपने विकास की राह का रोड़ा मानता है। एक समय था जब नक्सली अपनी मांगों को पूरा करने के लिए राजीव गाँधी के अपहरण तक की बात करते थे। और फिर देश ने भी देखा था की किस तरह से उन्होंने एक पुलिस वाले की छाती पर प्रिजनर ऑफ़ वार लिखकर भेजा था। आखिर जंग कहाँ है ? और क्यों है ? जिस इलाके में सरकार एक स्कूल नहीं दे सकी, एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं बना सकी। आज सरकार उस इलाके में ढाई लाख हथियार बंद सिपाही भेज रही है। जो अपने ही देश के लोगों पर और ऐसे लोगों पर जिनके हाथों में पुलिस की .३०३ रायफल से भी रद्दी गुणवत्ता के हथियार हैं और जो सिर्फ अपने रोटी और जंगल की मांगों को लेकर खड़े हैं। सरकार की उन पर इतनी मेहरबानी क्यों की जिस झारखण्ड के खूंटी में सरकार एक हस्पताल न दे सकी वहां पर दवा का कारखाना दे दिया। बस्तर में पीने को पानी नहीं है लेकिन मिनरल वाटर का कारखाना है। राहुल गाँधी कभी कभी इस दर्द को समझ जाते हैं लेकिन सिर्फ राजनीतिक हित की वजह से शरद पवार की तरह महंगाई को राज्य का मुद्दा बताकर चुप्पी साध जाते हैं। क्यों मनमोहन और चिदुम्बरम नहीं समझ पते हैं । जिस दिन राहुल पी एम होंगे और कोई सख्त सतह और पोली जमीन की हकीकत जब राहुल को बताएगा तब राहुल भी मनमोहन की तरह हकीकत से कतरायेंगे। और ये सवाल बार बार खड़ा होगा की क्यों जिन सत्तर करोड़ लोगों को मनमोहन अस्पताल और स्कूल तक नहीं दे सके,क्यों जिन लोगों के हक की लड़ाई आज सिर्फ पचास रुपये रोज के मेहनताने को लेकर है। उन लोगों को उन्हें जंगल से बेघर करके सहर बुलाकर उपभोक्ता बना देना ये शायद मनमोहन का अर्थशास्त्र होगा। मनमोहन आम आदमी के प्रतिनिधि होकर भी उस आदमी की चीखें नहीं सुन सके जो उनके काफिले की सुरक्षा में दम तोड़ रहा था।

मनमोहन सिंह तो सिर्फ प्रतीक हैं, दिक्कत है हमारे सिस्टम की, हमारी व्यवस्था की जो तेंदू पत्ता मजदूरन का आन्दोलन सिर्फ इसलिए करवाता हैं, उनकी दिहाड़ी प्रति हजार पत्ता ३५ पैसे से बढाकर २ रुपये करवा दे। सरकार उन्हें पीने का पानी उपलब्ध न करवा सके। ये अलग का मुद्दा है सरकार इस पर बात नहीं करेगी लेकिन सरकार बात कर सकती है। जंगल के मूल निवासियों से बांस काटने पर ३०० रुपये का टैक्स लेने पर। जो उनकी झोपड़ी की लागत ७०० रुपये कर देता है । शायद यही हमारी नियति है और इस देश के गरीबों का मुकद्दर भी।









आशु प्रज्ञ मिश्र
माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल

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