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Thursday, November 20, 2008

साहित्य और पत्रकारिता के सेतुपुरुष थे पराड़कर जी -

‘ विरोध (http://virodh.blogspot.com/)


पं बाबूराव विष्णु पराड़कर हिंदी साहित्य और पत्रकारिता के सेतुपुरुष थे. पत्रकारिता की मौजूदा परिस्थिति में आज उनकी ओर से स्थापित मूल्य और ज्यादा प्रासंगिक हैं. उन्होंने हिंदी साहित्य को दो सौ से ज्यादा शब्द दिए थे. उन्होंने आजादी के आंदोलन में पत्रकारिता का इस्तेमाल तलवार की तरह किया था. पत्रकारिता में चुनौतियां उस जमाने में भी कम नहीं थी. इस समय जरूरत है पराड़कर की तरह उनसे निपटने की दिशा में एक ठोस पहल की.’ देश की हिंदी पट्टी से यहां जुटे तमाम आलोचकों, साहितियकारों, पत्रकारों और विद्वानों ने पराड़कर जी को कुछ इन्हीं शब्दों में याद किया. मौका था भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता और संचार विश्वविद्यालय की ओर से पराड़कर की 125वीं जयंती के मौके पर यहां आयोजित एक संगोष्ठी का. संगोष्ठी का विषय था-‘पराड़कर युग और आज की पत्रकारिता.’
कबीरचौरा स्थित नागरी नाटक मंडली के सभागार में इस संगोष्ठी के लिए पांच सौ से ज्यादा लोगों की भीड़ देखना अपने आप में एक सुखद अनुभव था. अमूमन ऐसे आयोजनों में भीड़ या तो जुटती नहीं है या फिर मुख्य वक्ताओं को सुनने के बाद ही निकल जाती है. लेकिन पहले सत्र में समय लंबा खिंचने के बावजूद लोग न सिर्फ जमे रहे, बल्कि ध्यान से सबको सुना भी. संगोष्टी के दौरान पराड़कर जी की पुत्रवधू अर्चना पराड़कर को सम्मानित किया गया. इस मौके पर भोपाल के ही....की ओर से उदंड मार्तंड से लेकर पराड़कर जी के संपादन में निकलने वाली ‘आज’, ‘संसार’, ‘कमला’ और ‘रणभेरी’ की दुर्लभ प्रतियों की प्रदर्शनी आयोजित की गई थी. इसे देखना पत्रकारिता के एक कालखंड से गुजरने की तरह था.
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता और संचार विश्वविद्यालय के कुलपति अच्युतानंद मिश्र ने अपने स्वागत भाषण में कहा कि ‘पराड़कर जी हिंदी साहित्य और पत्रकारिता के सेतु पुरुष थे. उन्होंने हिंदी साहित्य को दो सौ से ज्यादा शब्द दिए.’ मिश्र का कहना था कि आजादी के बाद साहित्य और पत्रकारिता के बीच दूरी बढ़ी. नतीजा यह रहा कि हिंदी को उसका उचित स्थान और पहचान दिलाने की जो लड़ाई इन दोनों को मिल कर लड़नी थी वह कमजोर हो गई. उन्होंने बताया कि विश्वविद्यालय की ओर से देश के ऐसे तमाम मूर्धन्य संपादकों की जन्म या कर्मभूमि ने ऐसे आयोजन किए जाएँगे, जिनका आजादी की लड़ाई में अहम योगदान रहा है.
संगोष्ठी के प्रधान वक्ता वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने कहा कि ‘पराड़कर युग और आज की पत्रकारिता के बीच कोई सेतु बनाने का प्रयास बुरी तरह विफल होगा. पत्रकारिता का जो अर्थ उस समय था, वह आज के इस दुर्भाग्यपूर्ण माहौल में कहीं फलता-फूलता नजर नहीं आता. लेकिन पराड़कर के जरिए आज की पत्रकारिता को समझने की एक कुंजी तो मिल ही सकती है.’ उनका सवाल था कि मराठी होते हुए भी पराड़कर को हिंदी इलाके ने अपना मान कर प्रतिष्ठित किया था, लेकिन क्या आज के माहौल में यह संभव है? उन्होंने कहा कि ‘पराड़कर ने आजादी के लिए पत्रकारिता को तलवार की तरह इस्तेमाल किया था. लेकिन अब उसी आजाद देश में मुंबई और असम में हिंदीभाषियों को बाहरी कह कर मारा और भगाया जा रहा है. तमाम अखबार और चैनल राज ठाकरे को खलनायक बताते हुए उसका महिमामंडन करने में जुटे हैं.’
जाने-माने आलोचक नामवर सिंह ने पहले तो इस बात पर आक्रोश जताया कि काशी के लोग अपनी भुलक्कड़ी की आदत के चलते पराड़कर को भी भूल गए हैं. उन्होंने कहा कि ‘आज की पत्रकारिता कठिन दौर से गुजर रही है. इसकी विश्वसनीयता तेजी से कम हुई है. लेकिन पराड़कर युग से तुलना कर इसे कोसने की बजाय इसकी दशा में सुधार के लिए साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े लोगों को गंभीरता से विचार करना होगा.’
संगोष्ठी में असहमति के स्वर भी उभरे. कई पत्रकारों ने सवाल उठाया कि अब बाजार के दबाव में प्रबंधन इस बात का फैसला करता है कि कौन सी खबर छपेगी और कौन सी नहीं. ऐसे में पत्रकार कर ही क्या सकता है? अच्युतानंद मिश्र ने इन सवालों का जवाब देते हुए कहा कि ‘स्वरूप भले बदला हो, चुनौतियां हर युग में रही हैं. ऐसे में पराड़कर की तरह ही इन चुनौतियों से निपटने के लिए एक ठोस पहल की जरूरत है.’
संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे डा. कृष्ण बिहारी मिश्र ने कहा कि पहले पत्रकारिता उदेश्य प्रधान थी लेकिन अब अर्थ प्रधान हो गई है. उन्होंने भी मौजूदा हालात में सुधार के लिए साहितय और पत्रकारिता के बीच सहयोग की जरूरत पर जोर दिया. संगोष्ठी का संचालन किया वाराणसी स्थित मदन मोहन मालवीय हिंदी पत्रकारिता संस्थान के निदेशक प्रोफेसर राममोहन पाठक ने. धन्यवाद ज्ञापन सप्रे संग्रहालय के निदेशक विजयदत्त श्रीधर ने किया. संगोष्ठी के दौरान ही पराड़कर के सहयोगी रहे पारस नाथ सिंह को भी सम्मानित किया गया. तमाम वक्ता इस बात से सहमत थे कि एक दिन की किसी संगोष्ठी में इतने गंभीर विषय पर विस्तार से चर्चा संभव नहीं है. लेकिन उन्होंने उम्मीद भी जताई कि इस पहल के दूरगामी नतीजे होंगे.

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