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Friday, November 28, 2008

जाना एक फ़कीर का

अंबरीश कुमार (http://virodh.blogspot.com)

भारतीय राजनीति में पिछड़े तबके को राजनैतिक ताकत दिलाने और समाज में उनकी नई पहचान बनाने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह नहीं रहे। अंतिम समय तक वे सामाजिक बदलाव के संघर्ष से जुड़े रहे। गुरूवार दोपहर करीब ढाई बजे उनका निधन हुआ जबकि बुधवार की रात जन मोर्चा के नेताओं से उनकी राजनैतिक चर्चा भी हुई। जन मोर्चा वीपी के नेतृत्व में जल्द ही उत्तरांचल में सम्मेलन करने ज रहा था तो १५ दिसम्बर को संसद घेरने का कार्यक्रम तय था। वीपी सिंह अंतिम समय तक सेज के नाम पर किसानों की जमीन औने-पौने दाम में लिए जने के खिलाफ आंदोलनरत थे। ७७ वर्ष की उम्र में १६ साल वे डायलिसिस पर रहकर लगातार आंदोलन और संघर्ष से जुड़े रहे। अगस्त,१९९0 में प्रधानमंत्री के रूप में जब उन्होंने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की तो पूरे उत्तर भारत में राजनैतिक भूचाल आ गया था। मंडल के बाद ही हिन्दी भाषी प्रदेशों की जो राजनीति बदली, उसने पिछड़े तबके के नेताओं को नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया। बिहार, उत्तर प्रदेश से लेकर राजस्थान तक अगड़ी जतियों की जगह पिछड़ी जतियों ने लेना शुरू किया। बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति तो ऐसी बदली कि डेढ़ दशक बाद भी कोई सवर्ण मुख्यमंत्री नहीं बन पाया। उत्तर भारत की राजनीति बदलने वाले वीपी सिंह अगड़ी जतियों और उच्च-मध्यम वर्ग के खलनायक भी बन गए। यह भी रोचक है कि लालू यादव से लेकर मुलायम सिंह यादव तक को सत्ता के शीर्ष पर पहुंचाने का राजनैतिक एजंडा तय करने वाले वीपी सिंह एक बार जो केन्द्र की सत्ता से हटे तो फिर दोबारा सत्ता में नहीं आए। मंडल के बाद ही मंदिर का मुद्दा उठा जिसने भगवा ब्रिगेड को केन्द्र की सत्ता तक पहुंचा दिया। लोगों को शायद याद नहीं है कि लाल कृष्ण आडवाणी का रथ बिहार में जब लालू यादव ने रोक कर गिरफ्तार किया था तो देश के प्रधानमंत्री वीपी सिंह थे। इसी के चलते लालू यादव आज भी अल्पसंख्यकों के बीच अच्छा खासा जनाधार रखते हैं। २५ जून, १९३१ को जन्म लेने वाले वीपी सिंह इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी मंत्रिमंडल तक में शामिल रहे। कांग्रेस से उनका टकराव बोफोर्स को लेकर हुआ था जिसने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया। आज भी बोफोर्स का दाग कांग्रेस के माथे पर से हट नहीं पाया है। कुछ दिन पहले ही वीपी सिंह की कविता की एक लाइन प्रकाशित हुई थी-रोज आइने से पूछता हूं, आज जाना तो नहीं है। पता नहीं आज उन्होंने यह सवाल किया था या नहीं पर वे आज चले गए। राजनीति के बाद उनका ज्यादातर समय कविता और पेंटिंग में गुजरता था। अगड़ी जतियों के वे भले ही खलनायक हों लेकिन पिछड़ी जतियों, दलितों, वंचितों और अल्पसंख्यकों के वे हमेशा नायक ही रहे। मुलायम सिंह के शासन में उन्होंने दादरी के किसानों का सवाल उठाया तो वह प्रदेश व्यापी आंदोलन में तब्दील हो गया। इससे पहले बोफोर्स का सवाल उठाकर जब वे उत्तर प्रदेश के गांव-गांव में घूमें तो नारा लगता था-राज नहीं फकीर है, देश की तकदीर है। वीपी सिंह लगातार आंदोलनरत रहे और समाज पर उनकी छाप अमिट रहेगी। चाहे मंडल का आंदोलन हो या फिर मंदिर आंदोलन के नाम पर सांप्रदायिक ताकतों का विरोध करना या फिर किसानों के सवाल पर देश के अलग-अलग हिस्सों में अलख जगाना, इन सब में वीपी सिंह का महत्वपूर्ण योगदान रहा। लोकनायक जय प्रकाश नारायण के बाद वीपी सिंह दूसरे नेता रहे जिन्होंने कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ा। यही वजह है कि बाद में उनके समर्थकों ने उन्हें जन नायक का खिताब दिया। पर उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का था। जिसके बाद उन्हें मंडल मसीहा कहा जने लगा। यह बात अलग है कि मंडल के नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं ने उन्हें हाशिए पर ही रखा। यही वजह है कि उत्तर भारत की राजनीति को बदलने वाले वीपी सिंह कई वर्षो से किसी भी सदन के सदस्य नहीं रहे। आज भी उनके परिवार का कोई सदस्य विधानसभा या संसद में नहीं है। उनके पुत्र अजेय सिंह पिछले कुछ समय से किसानों के सवाल को लेकर सामने आ चुके हैं पर किसी राजनैतिक दल से उनका कोई संबंध नहीं रहा है। वीपी सिंह से करीब १५ दिन पहले फोन पर बात हुई तो उन्होंने किसानों के सवाल को लेकर आंदोलन की योजना की बारे में बताया था। यह भी कहा था कि वे जल्द ही विदर्भ के किसानों के सवाल को लेकर न सिर्फ वहां जएंगे बल्कि वहां धरना भी देंगे। इससे पहले दादरी के मुद्दे को लेकर उन्होंने उत्तर प्रदेश में व्यापक आंदोलन छेड़ा। डेरा डालो-घेरा डालो आंदोलन के जरिए उन्होंने देवरिया से दादरी तक किसानों को लामबंद किया था। इसके अलावा बुंदेलखंड में जब किसानों की खुदकुशी का सिलसिला शुरू हुआ तो वीपी सिंह कई क्षेत्रों में गए। बाद में जन मोर्चा और किसान मंच ने वामदलों के साथ बुंदेलखंड में आंदोलन भी छेड़ा। एक दौर में उनके आंदोलन के साथ राष्ट्रीय लोकदल, भाकपा, माकपा, भाकपा माले, इंडियन जस्टिस पार्टी और कई छोटे-छोटे दल जुड़ गए थे। मुलायम सिंह के खिलाफ राजनैतिक माहौल बनाने में वीपी सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यह बात अलग है कि छोटे-छोटे दलों के नेताओं की बड़ी महत्वाकांक्षाओं को वे संभाल नहीं पाए। और इसका फायदा विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को मिला। कुछ महीने से उनकी तबियत काफी खराब चल रही थी पर पिछले २0-२५ दिन से वे स्वस्थ थे। सारी तैयारी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, पंजब और महाराष्ट्र में किसान आंदोलन को लेकर चल रही थी। महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के ११ जिलों में वीपी सिंह का किसान मंच पिछले एक साल से सक्रिय है। अब दिसम्बर से महाराष्ट्र के किसानों को लेकर नए सिरे से आंदोलन की तैयारी थी। हालांकि आंदोलन का नेतृत्व अजेय सिंह ने संभाल लिया था पर वीपी सिंह की उपस्थिति से ही राजनैतिक माहौल बनता। वीपी सिंह के अचानक गुजर जने से देश के किसानों के आंदोलन को गहरा ङाटका लगा है। वीपी सिंह १९६९ से ७१ तक विधायक रहे। १९७१ में वे पांचवी लोकसभा के लिए चुने गए। १९८0 में वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और १९८२ तक इस पद पर रहे। १९८३ से १९८८ तक वे राज्यसभा के सदस्य रहे। १९८४ से १९८७ तक राजीव गांधी मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री रहे। बाद में वे १९८७ में रक्षा मंत्री बने।जनसत्ता से

2 comments:

  1. यूँ तो हमारे यहाँ मृतात्माओं की आलोचना की परम्परा नही है लेकिन मैं कभी रजा मांदा का कायल नही रहा. न उनके व्यक्तिगत जीवन का ना ही राजनीतिक.

    वीपी को जैसे भाग्य से राजा की गद्दी मिली वैसे ही राजनीती की और दोनों ही उनसे नही सम्हली. मंडल का मंजर मैं भूला नही हूँ दोस्त मेरे दो दोस्तों ने आत्महत्या कर ली थी.
    जुर बात मंडल या कमंडल की नही है मेरे भाई बात है नीयत की....

    कवितायें लिखना अगर आत्मा की पवित्रता का द्योतक होता तो फ़िर बात ही क्या थी...

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  2. mandal aandolan tha jise madhya varg ke savarn kya janenge jo sadiyo se samaj ki soshad vali meyvastha ke bare me jante tak nahi.aajadi ke bad jo imandar log rajniti me rahe unme vp ek the.up bihar hi nahi pure hindi belt ki rajniti isi ajenda per badal gai.


    kuch padha bhi kare samaj ke bare me.

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