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Saturday, July 18, 2009

प्रभाषजी, आप समुद्र थे, हैं, रहेंगे

वरिष्ठ पत्रकार और हम में से कई के आदर्श प्रभाष जोशी जन्म दिन पर....

फिराक गोरखपुरी के शेर को अगर थोड़ा सा मोड़ कर कहा जाय तो मै यह कहूंगा कि ''आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी, हम असरों, जब तुम उनसे जिक्र करोगे कि तुमने प्रभाष को देखा था।'' हमारी पीढ़ी इस मामले में सौभाग्य से भी दो कदम आगे है कि हममे से ज्यादातर ने इस और बीती हुई शताब्दी के सबसे बड़े संपादकों राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जी को देखा है और कई ने उनके साथ काम भी किया है। प्रभाष जोशी बहत्तर के हो गये, मगर मुझे चालीस पार के वे ही प्रभाष जी याद हैं जो दीवानों की तरह जनसत्ता निकाल रहे थे। वे हम बच्चों को सिखाते भी थे और करके दिखाते भी थे। संपादक जी कब समाचार डेस्क पर उप-संपादक बनकर बैठे हैं, कब प्रूफ पढ़ रहे हैं, कब संपादकीय लिख रहे हैं, कब प्रधानमंत्री के घर भोजन करके आ रहे हैं और कब देवीलालों और विश्वनाथ प्रताप सिंहों को हड़का रहे हैं कि अपनी राजनीति सुधार लो।
हर वक्त कभी न कभी ऐसा होता ही रहता था। लिखावट ऐसी जैसे मोती जड़े हों। आज भी कोई फर्क नहीं आया। अब अगर आपको ये बताया जाय कि एक बार फेल होकर मेट्रिक के आगे नहीं पढ़ने वाले प्रभाष जोशी भरी जवानी में लंदन के बड़े अखबारों में काम कर आये थे और इसके पहले इंदौर के चार पन्ने के नई दुनिया में संत बिनोवा भावे के साथ भूदान यात्रा में शामिल भी रहे थे और इस भूदान यात्रा की डायरी से ही नई दुनिया से उन्होंने पत्रकारिता शुरू की थी तो आप चाहें तो मुग्ध हो सकते हैं या स्तब्ध हो सकते हैं। प्रभाष जी दोनों कलाओं में माहिर हैं। लिख्खाड़ इतने कि चार पन्नों का अखबार अकेले निकाल दिया और घर जाकर कविताएं लिखी।
सर्वोदय के संसर्ग से जिंदगी शुरू की थी और जिंदगी के साथ जितने प्रयोग प्रभाष जोशी ने किए उतने तो शायद महात्मा गांधी ने भी नहीं किए होंगे। जन्म हुआ आष्टा में जो तब उस सीहोर जिले में आता था जिसमें तब भोपाल भी आता था। पढ़ाई छोड़ी और माता पिता जाहिर है कि दुखी हुए मगर प्रभाष जी बच्चों को पढ़ाने सुनवानी महाकाल नाम के गांव में चले गये। वहां सुबह सुबह वे बच्चों के साथ पूरे गांव की झाड़ू लगाया करते थे और खुद याद करते हैं कि खुद चक्की पर अपना अनाज पीसते थे। गांव की कई औरते भी अनाज रख देती थी उसे भी पीस देते थे। राजनैतिक लोगों को लगने लगा कि बंदा चुनाव क्षेत्र बना रहा है। मगर प्रभाष जी पत्रकारिता के लिए बने थे। यहां यह याद दिलाना जरुरी है कि संत बिनोवा भावे के सामने चंबल के डाकुओं ने पहली बार जो आत्मसमर्पण 1960 में किया था उसके सहयोगी कर्ताओं में से प्रभाष जी भी थे और हमारे समय के सबसे सरल लोगों में से एक अनुपम मिश्र भी।
प्रभाष जी इंदौर से निकले और दिल्ली आ गये और गांधी शांति प्रतिष्ठान में काम करने लगे। एक पत्रिका निकलती थी सर्वोदय उसमें लगातार लिखते थे। गांधी शांति प्रतिष्ठान के सामने गांधी निधि के एक मकान में रहते थे। रामनाथ गोयनका खुद घर पर उन्हे बुलाने आये। प्रभाष जी ने उन्हे साफ कह दिया कि वे बंधने वाले आदमी नहीं हैं। मगर रामनाथ गोयनका भी बांधने वाले लोगों में से नहीं थे । वे अपनाने वाले लोगों में से थे। प्रभाष जोशी और रामनाथ गोयनका ने एक दूसरे को अपनाया और सबसे पहले प्रजानीति नामक साप्ताहिक निकाला और फिर जब आपातकाल का टंटा हो गया तो आसपास नाम की एक फिल्मी पत्रिका भी निकाली। क्रिकेट के उनके दीवानेपन के बारे में तो खैर सभी जानते ही हैं । वे जब टीवी पर क्रिकेट देख रहे हों तो आदमी क्रिकेट देखना भूल जाता है। फिर तो प्रभाष जी की अदाएं देखने वाली होती है। बालिंग कोई कर रहा है, हवा में हाथ प्रभाष जी का घूम रहा है। बैटिंग कोई कर रहा है और प्रभाष जी खड़े होकर बैट की पोजीशन बना रहे हैं। कई विश्वकप खुद भी कवर करने गये। कुमार गंधर्व जैसे कालजयी शास्त्रीय गायक से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक से दोस्ती रखने वाले प्रभाष जोशी के सामाजिक और वैचारिक सरोकार बहुत जबरदस्त हैं औऱ उनमें वे कभी कोई समझौता नहीं करते। जनसत्ता का कबाड़ा ही इसलिए हुआ कि प्रभाष जी उस पाखंडी कांग्रेसी विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी सरकार बनाने में जुटे हुए थे। इसके पहले जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में शरीक थे और जे पी जिन लोगों पर सबसे ज्यादा भरोसा करते थे उनमें से एक हमारे प्रभाष जी थे।
प्रभाष जी ने जिंदगी भी आंदोलन की तर्ज पर जी। आखिर अपना वेतन बढ़ने पर शर्मिंदा होने वाले और विरोध करने वाले कितने लोग होंगे। जिस जमाने में दक्षिण दिल्ली और निजामुद्दीन में रहने के लिए पत्रकारों में होड़ मचती थी उन दिनों उन्हे भी किसी अभिजात इलाके में रहने के लिए कहा गया मगर वे जिंदगी भर यमुना पार रहे और अब तो गाजियाबाद जिले में घर बना लिया है। आष्टा से इंदौर होते हुए गाजियाबाद का ये सफर काफी दिलचस्प है। मगर जो आदमी भोपाल जाकर सिर्फ वायदों के भरोसे दैनिक अखबार निकाल सकता है और वहां खबर लाने वाले चपरासी का नाम पहले पन्ने पर संवाददाता के तौर पर दे सकता है और अखबार बंद न हो जाय इसलिए अपनी मोटरसाइकिल बेच सकता है, पत्नी के गहने गिरवी रख सकता है वह कुछ भी कर सकता है। लेकिन ऐसे लोग कम होते हैं। सब प्रभाष जोशी नहीं होते जो जिसे सही समझते हैं उसके लिए अपने आपको दांव पर लगा देते हैं। यह उनकी चकित करने वाली विनम्रता है कि वे कहते हैं कि दिल्ली में आकर वे कपास ही ओटते रहे। यही उनकी प्रस्तावित आत्मकथा का नाम भी है। हिंदी पत्रकारिता का इतिहास दूसरे ढ़ंग से लिखा जाता अगर प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर और उनके बाद की पीढ़ी में उदयन शर्मा और सुरेंद्र प्रताप सिंह पैदा नहीं हुए होते ।
ये प्रभाष जी का ही कलेजा हो सकता है कि पत्रकारिता में सेठों की सत्ता पूरे तौर पर स्थापित हो जाने के बाद भी वे मूल्यों की बात करते हैं और डंके की चोट पर करते हैं। अखबार मालिक या संपादक दलाली करें, पैसे लेकर खबरें छापे ये सारा जीवन सायास अकिंचन रहने वाले प्रभाष जी को मंजूर नहीं। इसके लिए वे दंड लेकर सत्याग्रह करने को तैयार हैं और कर भी रहे हैं। इन दलालों में से कुछ नये प्रभाष जी की नीयत पर सवाल उठाया है लेकिन वे बेचारे यह नहीं जानते कि प्रभाष जी राजमार्ग पर चलने वाले लोगों में से नहीं हैं और बीहड़ों में से रास्ता निकालते हैं। उन्होने सरोकार को थामकर रखा है और जब सरकारें उन्हे नहीं रोक पायी तो सरकार से लाइसेंस पाने वाले अखबार मालिक और उनके दलाल क्या रोकेंगे।
आखिर में प्रभाष जी को जन्मदिन की बधाई के साथ याद दिलाना है कि आप समुद्र थे, समुद्र हैं लेकिन अपन जैसे लोगों की अंजुरी में जितना आपका आशीष समाया उसी की शक्ति पर जिंदा हूं।
अलोक तोमर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं फ़िल्म और टीवी के प्रसिद्द पटकथा लेखक हैं)
(इस लेख के लेखक की अनुमति से www.bhadas4media.com से साभार प्रकाशित)

2 comments:

  1. प्रभाष जी को हमारी तरफ से भी जन्मदिन की बधाई और आपका आभर इस परिच्य के लिये आभार्

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  2. प्रभाष जी से पता नही कितने सालों से एक पाठक का रिश्ता है। हर रविवार को उनका संपादकीय सबसे पहले पढा जाता है। इन्हीं के कारण जनसत्ता घर आता है जिस दिन ना मिले उस दिन लगता है कुछ छूट गया। पता नही कितने ही आर्टिकल की कटिंग रखी है संजोकर। सच में एक इंसान। हमारी तरफ से भी उनको जन्मदिन की शुभकामनाएं।

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