(सावन चल रहा है और सोमवार को मंदिरों में भीड़ देखता हूं तो सहसा ही गुलज़ार की ये नज़्म याद आ जाती है....)
चिपचिपे दूध से नहलाते हैं
आंगन में खड़ा कर के तुम्हें
शहद भी, तेल भी, हल्दी भी,
ना जाने क्या क्या घोल के
सर पे लुढ़काते हैं गिलसियाँ भर के
औरतें गाती हैं
जब तीव्र सुरों में मिल कर
पाँव पर पाँव लगाए खड़े रहते हो
इक पथराई सी मुस्कान लिए
बुत नहीं हो तो
परेशानी तो होती होगी ।
जब धुआँ देता, लगातार
जब धुआँ देता, लगातार
पुजारी घी जलाता है
कई तरह के छौंके देकर
इक जरा छींक ही दो तुम,
तो यकीं आए कि सब देख रहे हो ।
-गुलज़ार
(धर्म के ठेकेदार अन्यथा न लें...)
(धर्म के ठेकेदार अन्यथा न लें...)
उम्दा है साथ ही धर्म के ठेकेदरों के लिए एक सबक भी है
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