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Friday, July 31, 2009

रफी साहब को श्रद्धांजलि


हिन्दुस्तानी फ़िल्म संगीत में मुहम्मद रफी एक ऐसा नाम है जिसे कभी भुलाया नही जा सकता । २६ हज़ार से ज्यादा नगमे, ६ फ़िल्म फेयर अवार्ड, २ राष्ट्रीय पुरस्कार , पद्मश्री , मौसिकी की दुनिया में 35 साल का शीरीं सफर और स्वर सम्राट जैसी पहचान रखने वाले रफी की याद जब आती है तो बहुत शिद्दत से आती है । लेकिन आज वो दिन है जब रफी के शैदाई उनके तरन्नुम में डूब कर उन्हें अकीदत का नजराना पेश करते हैं । आज यानि ३१ जुलाई को रफी साहब की पुण्यतिथि होती है ।


रफी को याद करने का तकाजा सिर्फ़ इतना नही की वो फिल्मी दुनिया के सबसे बड़े गायक है। मुहम्मद रफी दरअसल गायिकी की उस ख्वाहिश का साकार रूप हैं जिसे हिन्दुस्तान का हर शख्स पैदाइश से वफात तक के अपने सफर के दौरान अपने दिल में सजा कर रखता है । ये रफी के ही गाये नगमें हैं जो कभी नए नए इश्क की आवाज़ बनकर बहारों से फूल बरसाने को कहते हैं , तो कभी मुहब्बत की रुसवा होने से कभी ख़ुद पे तो कभी हालत पे रोते हैं । कभी भगवान् से अपने दर्द भरे नाले सुनने की फरियाद करते हैं तो कभी चम्पी वाले के गले से हमें पुकार कर कहते हैं की सर जो तेरा चकराए .... जितने रंग ज़िन्दगी के हैं उतने ही रंग रफी के भी हैं ।
सन १९२४ में पंजाब के कोटला सुलतानपुर गाँव में जन्मे मुहम्मद रफी ने बचपन ने ही सुर और साज़ का दामन थाम लिया था। अब्दुल वहीद खान और उस्ताद बड़े गुलाम अली खान से संगीत के तालीम लेने के बाद रफी ४० के दशक में फिल्मी दुनिया में किस्मत आजमाने पहुचे । संगीतकार श्याम सुंदर ने रफी को पहला ब्रेक पंजाबी फ़िल्म गुल-बलोच में दिया , लेकिन रफी की गायिकी को असल मुकाम मिला नौशाद की शरण में जाकर । नौशाद ने ही अपनी फ़िल्म पहले आप(१९४४) में रफी को पहली बार हिन्दी गीत गाने का मौका दिया था । तलत महमूद की सिगरेट पीने की आदत नौशाद को इतनी नागवार गुजरी की उन्होंने १९५२ की शास्त्रीय धुन आधारित फ़िल्म बैजूबावरा में रफी को मुख्या गायक के तौर पर लिया । इस फ़िल्म में रफी ने अपनी गायिकी के वो जौहर बिखेरे की मन्ना डे ने भी कहा की रफी से अच्छा मालकौंस गाया ही नही जा सकता । इसके बाद रफी नें प्यासा (१९५७), कागज़ के फूल(१९५८), मुगले-आज़म(१९६०), चौदहवी का चाँद (१९६०) के बाद तो अपनी जगह सबसे बड़ी कर ली । सन १९५० से ७० का दशक अगर फ़िल्म संगीत का स्वर्ण युग कहा जाता है तो उसकी सबसे बड़ी वजह रफी का वहां होना ही है , ये वो दौर था जब सिर्फ़ नौशाद ही नही बल्कि मदन मोहन, शंकर जैकिष्ण , रवि, रौशन , लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जैसे सभी संगीतकारों की पहली पसंद रफी ही हुआ करते थे ।
कहा जाता है की ७० का दशक आते आते किशोर कुमार ने रफी का जादू ख़त्म कर दिया । लेकिन हकीकत इससे थोडी अलग है । दरअसल १९७० के बाद फिल्मों में गायिकी का जो रंग बना रफी का मिजाज़ उसके अनुकूल नही था । वेस्टर्न बीट्स पर आधारित ये धुनें रफी जैसी भारतीय मिटटी में सनी आवाज़ पर बैठती नही थीं, लेकिन इसके बावजूद भी रफी नें इन्हे गाने में भी कोई कसार नही छोड़ी। चाहें वो ओह हसीना जुल्फों वाली हो या दर्दे दिल दर्दे जिगर । रफी नें अपने इस कमज़ोर कहे जाने वाले दौर में भी अभिमान (१९७३) , लैला मजनू( १९७६) अमर अकबर अन्थानी (१९७७) , क़र्ज़(१९८०) के लिए ऐसे नगमे गाये हैं जिन्हें सिर्फ़ रफी ही आवाज़ दे सकते थे ।
रफी ने अपने पीछे गायिकी का जैसी परम्परा छोड़ी है वैसी शायद ही किसी दूसरे कलाकार ने छोड़ी हो। अपनी ज़िन्दगी में ही उन्होंने अपनी जैसी आवाज़ वाले अनवर को काम दिलाने की कोशिश की। बाद में भी शब्बीर कुमार, अगम निगम , मुहम्मद अजीज , और हालिया सोनू निगम कहीं न कहीं रफी की याद दिलाते हैं । लेकिन रफी की ये याद इतनी शदीद होती है की ये जिस गायक के कंधे पर चढ़ कर आती है उसे भी रफी में ही समेत लेती है ... इसीलिए ३१ जुलाई १९८० को रफी के इंतकाल पर नौशाद ने कहा था -
"तुझे नगमों की जान अहले नज़र यूँ ही नही कहते
तेरे गीतों को दिल का हमसफ़र यूँ ही नही कहते
महफिलों के दामन में साहिलों के आसपास
ये सदा गूंजेगी सदियों तक दिलों के आसपास"

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