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Monday, December 14, 2009

जीना यहां मरना यहां.....

शोमैन राज कपूर अगर आज भारतीय सिनेमा के शिखर पर काबिज़ हैं तो इसका राज़ उनकी ज़िन्दगी के शुरूआती दौर के इर्द-गिर्द घूमता है। 14 दिसंबर 1924 को पेशावर में जन्मे रणबीर राजकपूर से बचपन में उनके पिता पृथ्वीराज कपूर ने कहा था की राजू बेटा नीचे से शुरू करोगे तो बहुत ऊपर जाओगे। राजकपूर ने ये बात जैसे उसी वक़्त से गाँठ बाँध ली थी। वे तैयार थे नीचे से शुरू करने के लिए भी और बहुत ऊपर जाने के लिए भी।
राजकपूर ने रणजीत मूवीटोन के लिए अपरेंटिस का काम किया जो ज़रूरत पड़ने पर वजन भी उठा सकता था और झाडू-पोछा भी लगा सकता था। उन्होंने केदार शर्मा के लिए क्लैपर पकड़ा। बाद में यही केदार का यही क्लैपर बॉय राजू 1947 में उनकी फिल्म नीलकमल का नायक बन गया। इसके बीच में वे पहले ही इंकलाब (1935)और हमारी बात (1943), गौरी (1943) के ज़रिये ये दिखा चुके थे की कैमरे के सामने परदे पर भी वे बुरे नहीं लगते। राजकपूर के बहुत ऊपर जाने का सफ़र अब रफ़्तार पकड़ने लगा था।
1948 में वे पहली बार कैमरे के सामने से कैमरे के पीछे गए। सिर्फ चौबीस साल की उम्र में उन्होंने आरके स्टूडियो के नाम से अपना स्टूडियो शुरू किया और हिंदी सिनेमा के सबसे युवा फिल्म-निर्देशक बन गए। इसके बाद तो वे बारहा कैमरे के आगे-पीछे आते जाते रहे। राजकपूर अपने आप में एक पूरा फिल्म संस्थान थे। एक उम्दा निर्देशक जो एक बेहतरीन अभिनेता था, निर्माता था, साथ ही साथ गीत-संगीत और तकनीक जैसे न जाने कितने पहलुओं का ज्ञाता था। मुकेश, शंकर-जयकिशन, नर्गिस, मन्ना डे और शैलेन्द्र जैसे बेहतरीन लोग उनकी टीम में थे।
अपने हालात और समाज से भी वे हमेशा जुड़े रहे। यही वजह है की उनकी फिल्में प्रगतिशील आन्दोलन की मजबूत धुरी बनीं। आवारा की सफलता की कहानियां तो न जाने हमारी कितनी पीढियां सुनेंगी। राजकपूर एक ऐसा संग्रहालय हैं जिसके संग्रह में आग,आवारा, बूट-पोलिश,बरसात,जागते रहो,जिस देश में गंगा बहती है श्री-420, संगम, मेरा नाम जोकर, प्रेम-रोग, और बॉबी जैसी नायब फिल्में हैं। उनकी फिल्में युवाओं में नर्म दिल के नाज़ुक जज़्बात में हलचल पैदा करती हैं तो समाज के निष्ठुर कलेजे पर तीखी चोट भी करती हैं। उनकी फिल्मों का सन्देश फिजाओं में तैरता है तो उनकी फिल्मों के गीत लोगों की जुबां पर पीढी-दर-पीढी चढ़ते हैं।
आज के दौर में आमिर खान को मिस्टर परफेक्शनिस्ट का खिताब दिया जाता है लेकिन भारतीय फिल्मों के संपूर्ण गौरव-ग्रन्थ को पढ़ा जाय तो इस खिताब के सही और एकमात्र हकदार राजकपूर ही हैं। कपूर खानदान ने बेशक इंडस्ट्री को एक से एक नायाब सितारे दिए हैं लेकिन इनमें राजकपूर का चमक दैवीय है।ये एक अरसे से फ़िल्मी फलक को रौशन कर रही है और आगे भी अनंतकाल तक करती रहेगी। 2 जून 1988 को राजकपूर भले ही इस फानी दुनिया से रुखसत हो गए हों लेकिन उनकी फिल्में और उनका काम आज भी कह रहा है की जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ ....
हिमांशु बाजपेयी
(लेखक वर्तमान में भास्कर डॉट कॉम में कार्यरत हैं और राजकपूर के जयंती पर उनका ये विशेष आलेख भास्कर में प्रकाशित हुआ है....हिमांशु से आप him_12_1987@yahoo.co.in पर सम्पर्क कर सकते हैं।)

1 comment:

  1. निश्चय ही राजकपूर राग और संवेदना के सजग अध्येता रहे हैं फिल्म-बिरादरी में । सभी कृतियाँ बेजोड़ रही हैं उनकी । उनकी सफलता का राज तो शुरुआती पंक्तियों में ही कह दिया है - "राजू बेटा नीचे से शुरू करोगे तो बहुत ऊपर जाओगे। !"

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