" ढोल की गूँज और अलाव की गर्मी के माहौल में आप सभी के साथ हम नाच नाच कर लोहडी मनाना चाहते हैं। समय शाम ६ बजे दफ्तर के ही प्रांगण में।"
ऐसा लुभावना प्रस्ताव और आमंत्रण तो कोई महा नीरस व्यक्ति ही छोडेगा। सो हम भी छः बजे पहुँच गए लोहडी मनाने। वैसे आपको बताते चलें कि लोहडी मूलतः पंजाब में मनाया जाने वाला पर्व है। इसको मनाने के कारण गिनाये तो तमाम जाते हैं पर बड़े कारण दो ही हैं। एक तो यह की इस समय सर्दी की विदाई शुरू हो जाती है और अगले दिन यानी कि मकर संक्रांति से ही सूर्य उत्तरायण होने लगता है। तो अलाव के किनारे नाच गा कर, रक्त शुद्धि के लिए नई फसल के तिल, गुड, मूंगफली और मक्का को अग्नि को समर्पयामि कर के ख़ुद भी उसका प्रसाद ग्रहण करते हैं।
अच्छा दूसरा कारण जो बताया गया वह थोड़ा किवदंती वाला है। कहते हैं कि अकबर के समय के आस पास पंजाब में एक लुटेरा हुआ करता था जिसका नाम था दुल्ला भट्टी, ये साहब एक गरीब मुस्लिम परिवार से थे और अमीरों को लूट कर गरीबों को निहाल किया करते थे। इस लिहाज से इन्हे हम रोबिन हुड का भी पूर्ववर्ती मान सकते हैं। कहा जाता है कि ख़ुद मुस्लिम होते हुए भी कई बार इन्होने खाड़ी के मुल्कों में ज़बरन ले जाई जा रही हिन्दू लड़कियों को मुक्त कराया और देखते ही देखते पूरे पंजाब के हीरो बन गए। हालांकि इस बारे में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता कि इनका इस पर्व से क्या सम्बन्ध है पर लोहडी के हर गीत में दुल्ला भट्टी का उल्लेख ज़रूर मिलता है।
इसके अलावा तीसरी चौथी और पांचवी कथा भी है पर मैं आज यह पोस्ट कथा सुनाने की लिए नहीं लिख रहा हूँ। मकसद कुछ और है। लोहडी की जलती लकडियाँ, बंटती मूंगफली, रेवडी और ढोल की धुन पर मदमस्त होकर नाचते अपने साथियों को देख कर मेरे दिमाग में ये दंतकथाएं नहीं घूम रही थी बल्कि महाकवि कालिदास की एक सूक्ति उचर रही थी,
उत्सव प्रिया मानवः
उस आंच और थिरकते नौजवानों और संग बूढों के अन्दर की ऊर्जा को भी महसूस कर पा रहा था और समझ रहा था कि कालिदास ने क्या और क्यूँ कहा था। देखिये ना इतिहासकारों की छोड़ दें तो आम आदमी कहाँ किसी भी त्यौहार के असली कारण को बहुत मर्म में जाकर समझता है ? हमारे या दुनिया के किसी भी धार्मिक उत्सव को मनाने के पीछे की कहानियां बहुत तार्किक या पुख्ता नहीं हैं और ना ही पूरी हैं पर हम मनाते हैं और इस धूम धाम से कि क्या कहा जाए। दरअसल हम उत्सव मनाना चाहते हैं, जीवन की दुःख तकलीफों को झेलते हुए हम कुछ समय चाहते हैं जब हम हंस सकें, त्यौहार मना सकें, पकवान खा सकें और लोगों से हंस के मिल सकें। हम इतना नाचते हैं और अपनी पूरी नकारात्मक ऊर्जा उसमे नष्ट कर देते हैं और जब नाच कर थक के चूर होते हैं तो एक अनोखे आनंद से भरे होते हैं और सुखद सकारात्मक ऊर्जा से लबरेज़। ( कभी महसूस नहीं किया क्या ) ज़रूर ध्यान दें कि क्यों आख़िर व्यक्ति खुल कर नाचते समय एक अजीब से नशे से मदमस्त हो जाता है.....उसने सोमरस पिया हो या ना पिया हो !
दरअसल यह मानव की ख़्वाहिश है जो कभी ख़त्म नहीं होती पर रोज़ पूरी नहीं हो सकती है सो जैसे और जब मौका मिले तब......क्यूँ आख़िर ऐसा होता है कि दूसरे की शादी में भी आदमी मदमस्त होकर नाचता है.....? सच में आज के मौके ने मुझे एक दर्शन दिया....कि जब मैं ख़ुद उस उत्सव में शामिल हो कर नाच रहा था तब मैं महसूस कर पा रहा था...मैंने उन लोगों को भी देखा जो भद्र होने का प्रयास कर रहे थे....वे दूर खड़े तो थे पर पैर उनके भी लगातार तल पर ताल दे रहे थे। अंत में जब हमारे आउट पुट हेड और एच आर हेड भी हम सबके साथ नाचने आ उठे और ढोल की थाप और तेज़ होती गई........कुछ दिख नहीं रहा था....रौशनी के सिवा, कुछ सुनाई नहीं दे रहा था.....संगीत के सिवा, कुछ महसूस नहीं हो रहा था.....आनंद के सिवा......एक परालौकिक आनंद.....जो केवल इसी लोक में मिल सकता है.....
समझ में आया कि वस्तुतः पारलौकिक कुछ भी नही.....जो सबसे लौकिक है, वही सबसे पारलौकिक है.....जो सबसे भदेस है....वही सर्वाधिक सुखदायी है।
दरअसल उत्सव का कोई धर्म नहीं ......उत्सवधर्मिता ही सबसे बड़ा मानव धर्म है। कालिदास फिर कहने लगे कि देखो मैंने कहा था न.....उत्सव प्रियः .....कोई पीछे से लोहडी का प्रसिद्द लोकगीत गा रहा था.....
सुंदर मुंदरिये हो !
तेरा कौन विचारा हो !
दुल्लह भट्टी वल्ला हो !
दुल्ल्हे दी धी व्याये हो !
सेर शक्कर पाई हो!
कुड़ी दा लाल परांदा हो!
एक भोला रह गया!
सिपाही पकड़ के लै गया!
सानू दे दे लोहरी
ते तेरी जीव जोड़ी!
और गीत समझ में ना आने पर भी वहाँ ज़्यादातर लोग अपने सबसे बड़े धर्म का निर्वाहन कर रहे थे.....उत्सवधर्मिता का !
( ये गीत बचपन में याद किया था....पंजाबी ना होने के बावजूद टूटा फूटा भी याद रहना उपलब्धि मानी जाए)
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