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Wednesday, January 14, 2009
छत्तीसगढ़ः एक खोज
मुझे अफसोस है कि छत्तीसगढ के छेरछेरा पर्व के बारे में तारीख 11से पहले मुझे कोई जानकारी नहीं थी। संभवतः आपको भी नहीं होगी, अगर होगी भी तो एक हल्की, सुनी-सुनी सी बात की तरह। जो लोग इस राज्य के नहीं हैं या किसी रूप से यहाँ से नहीं जुड़े हैं, उनके लिए तो ये शब्द भी अनजाना हो सकता है।.........क्यों ऐंसा हुआ ? आखिर कारण क्या था ? जो मैं राज्य की छाती रायपुर में रह कर भी इस विषयक जानकारी नहीं जुटा सका या फिर इस बारे में कोई पता न चल सका.....क्या ? मेरी रुची नहीं थी इसे जानने की या फिर मेरी लापरवाही। क्या कहा जाए ?........लेकिन दोस्तों ऐंसा कुछ भी नहीं है...इसका कारण सीधा सा ख़बरों के अकाल को तरसता मीडिया, इस ख़बर पर ठीक पर्व के दिन ही बन सका इससे हम जैसे वाहरी लोगों के लिए यह पर्व नया हो गया.......मैं यहां मीडिया को दोष नहीं दे रहा हूँ बल्की उन मेरे साथियों से भी असंतुष्ट हूँ, जो इस राज्य का गुणगान करने में कंजूसी करते हैं। बल्की कुछ लोग तो मुंह से आवाज़ तक नहीं निकालते....किसी नई जगह की बेहतर जानकारी कागज,पन्नों से ही नहीं जुटाई जा सकती बल्की ज़्यादा अच्छी और वास्तविक जानकारी लोकल के लोगों से ली जा सकती है.....मगर अफसोस, छत्तीसगढ़िया ऑफिस में हर अगला आदमी लोकल है, फिर भी छेरछेरा का पता तक नहीं चला। आखिर ये सब बात करने के पीछे मेरी मंशा किसी के ज्ञान पर सवाल खडे करने की नहीं है वरन लोगों के उत्साह को परखने की है...कोई बात अगर मध्यप्रदेश की होती तो सभी लोग उत्साह के साथ तीज त्यौहारों की बात कर रहे होते रोज़ एक बार तो ज़रूर ही ये बात आ जाती कि फलां दिन फलां तीज या त्यौहार है....और सिर्फ मध्यप्रदेश ही क्यों भारत के सभी राज्यों में कमोवेश ऐसं ही होता। क्या ये मीडिया की उदासीनता है ? या फिर स्थानीय लोगों की उत्साह हीनता। खैर जो भी हो मगर इस त्यौहार ने छत्तीसगढ़ के एक और रचनात्मक पहलू से रूबरू ज़रूर कराया है....इस दिन गांव के बच्चे घर-घर जाकर इस गीत के साथ धान मंगते हैं....अगरहिन ल नेवतेंव,बगरहिन ल नेवतेंव,नेवतेंव बन के चांटी,पीपर तरी के खुसरा ल नेवतेंव,ओखरों बड़े बड़े आंखी.....और साथ ही बच्चे गाते है...छेरछेरा,माई कोठी के धान ल हेरहेरा....मैं दुर्भाग्यवश इस पर्व का साक्षी नहीं बन सका क्योंकि नवयुग के जींस ठाठ के लोग इन सब परंपराओं को देखना या इनका ज़िक्र करना तक अपना पिछड़ापन मानते है। रायपुर या लाइक दिस सिटी में ये पर्व उतने उत्साह से नहीं मनाया गया जितना उत्साह गांवों में देखा गया.....गांव ही तो हैं जो परंपराओं को लेकर चल रहे हैं और निरंतर बिखराव सह रहे हैं।........मीडिया और माउथ पब्लीसिटी के लोगों से निवेदन है कि अपनी जड़ों में मठा ना डालें।.......फिर भी जो कुछ भी इस बारे में पता चला आखिर मीडिया से ही....तो फिर धन्यवाद में क्यों कंजूसी.........धन्यवाद मीडिया........
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चलिए आप से इस प्राचीन परंपरा के बारे में पता लगा। अगली बार इस का विस्तार से विवरण बता पाएँगे। वैसे इस तरह के विवरण ग्रामीण समाज से ही पता लग सकते हैं। किसी भी वस्तु को मांगने की परंपरा हमारे इतिहास के सामूहिक जीवन को इंगित करती है। जहाँ लेने वाले और देने वाले दोनों ही प्रसन्नता व्यक्त करते हैं।
ReplyDeleteसुंदर जानकारी | मकर संक्रांति की शुभकामनाएं |
ReplyDeleteजो छत्तीसगढ़ में रह चुका है वो ज़रूर जानेगा इस पर्व के बारे में। हमने तो देखा है इस पर्व को मनते हुये।
ReplyDeleteरायपुर में तो यह पर्व समाप्तप्राय हो चुका है। हाँ गावों में इस पर्व के समय अब भी सुनाई पड़ जाता हैः
ReplyDelete"अरन बरन कोदो दरन, जब्भे देबे तब्भे टरन।"
छत्तीसगढ़ पर श्रंखला बहुत अच्छी लग रही है .......मैं इसको इस आधार पर देख रहा हूँ की मैं कभी छत्तीसगढ़ नही गा पर इन पोस्ट के बाद मुझमें वहां जाने के उत्कंठा जाग रही है .......बरुन सर आपको बहुत बधाई .......अगर आप छत्तीसगढ़ की लोकल बोली जैसे वहां के स्थानीय लोग बोलते हैं उसपर कुछ पेश करें तो मज़ा आएगा.....जैसे भोपाल में जा रिया खा रिया है ,,,,,,,
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