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Thursday, February 12, 2009

सत्यम का सच हुआ बेपर्दा

लंबे अरसे के बाद आखिरकार सूरज दूंध को चीरता हुआ दस्तक दे ही दिया। कब तक घने कुहरे सच को छुपाकर रख सकते थे, जिसमे हजारों लोगो की दर्द भरी आह छुपी हुई थी। सत्यम के जन्मदाता बी रामलिंगा राजू धोखेबाजी और फरेबी का चोल ७ जनवरी २००९ को उतार दिया। सेबी के सामने चिट्ठी द्वारा घोटाले की सडांध को उजागर किया। इस प्रकरण का खुलासा उन्होंने इसलिए नही किया कि वो इमानदार हो गए हैं, बल्कि इसलिए ताकि अमेरिका के सख्त कानून से बच सके। एनरान को सीइओ जेफरी के शिलिग़ को २४ साल तक जेल कि सलाखे नसीब हो गई। भारत में राजू को १० साल से आधिक कि सज़ा नही हो पायेगी। वो यहाँ जुगाड़ भी लगा सकते हैं। एक बात जो दिमाग में खटकती है वो ये है कि जब १९९९-२००१ में केतन पारेख मामला सामने आया तो उसमे सत्यम के हाथ भी घोटाले में डूबे थे। लेकिन सेबी ने उसे क्लीन चित दे दी थी। हाल- फिलहाल विश्व बैंक ने भी सत्यम पर व्तापरिक प्रतिबन्ध लगाया ही है। २०००-२००५ के बीच सत्यम का पीई १५ से २० के बीच रहा, वही इन्फोसिस का ३० गुना आधिक था। तब भी इसने २००८ में कार्पोरेट गोवेर्नांस में उत्कृष्टता के लिए गोल्डन पीकम ग्लोब पुरस्कार हासिल किया। हद तब हो गई जब बैलेंशीत में गडबडी होते हुए भी आपने बेतीं की मेटस इन्फ्रास्त्क्चर और मेटस प्रापर्टी की आधिग्रहं की कोसिस कि। यह काम वह कंपनी कानून कि धारा ३७२-अ का उलंघन करके करने जा रही थे । इसके लिए निवेशको ने हल्ला मचाया और बाज़ार के सुस्त पड़ जाने, खासकर रियल इस्टेट के लकवाग्रस्त हो जाने के कारन राम्लिंगाराजू का दिमागी षडयंत्र बाहर फुट पड़ा। वो सालों के तीनो तिमाही में झूट बोलते रहे कि कम्पनी के पास नकदी,राजस्व,बैंक बैलेंस, जो उधारी मिलाने वाली है वो इतनी------है। कम्पनी को बल्कि उधारी चुकानी थी। समझने वाली एक बात है कि इतना बड़ा और इतने दिनों से चल रहे फर्जीवाडे का पर्दाफाश कैसे नही हुआ? आदित करने वाली संस्था आडिटर, प्रिसवाटरहाउसकूपर्स कैसे काम करते रहे? सेबी और उद्धोग मंत्रालय क्यूँ कुम्भ्करनी नीद सोते रहे? प्रश्न यह है कि राम लिंग राजू इतने मैनेजमेंट गुरुओ के होते हुए खेल खेलते रहे। फिलहाल तो देखने वाली बात ये होगी कि बेपर्दा हुए झूठ को कितनी सज़ा मयस्सर होगी? कौन-से प्रावधान लाये जायेगे जिससे कोई दूसरा राम लिंग राजू इस तरह के खेल खेलने की हिमाकत भी न कर सके।

नेहा गुप्ता भोपाल.

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