इससे पहले कि बेवफा हो जायें
क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जायें
और फिर जब लगा कि ज़िन्दगी बेवफा होने लगी है ..... फ़राज़ साहब ने ज़िन्दगी से जुदा होने का फ़ैसला ले लिया। उर्दू अदब और कलम की दुनिया का वो सितारा बुझ गया जिसने न जाने कितने दिलों को तन्हाइयों में सुकून दिया और न जाने कितने दिमागों को रोशन कर दिया।
फ़राज़ साहब दरअसल एक शख्सियत नहीं थे, वो एक किताब थे जिसे पढ़कर न जाने कितने गुमनाम लोग शख्सियत बन गए, दावे से कहा जा सकता है कि आज के उर्दू के कई बड़े शायर ऐसे होंगे जिनको शायरी करने का पहला शौक अहमद फ़राज़ साहब को सुनकर या पढ़कर हुआ होगा। और ये हाल उनके मादर ऐ वतन पाकिस्तान का नहीं हिन्दोस्तान का भी था।
उर्दू के इस सितारे की पैदाइश हुई १९३२ में पाकिस्तान के नौशेरा में, वालिद ठहरे मामूली मदरसे के टीचर सो बहुत रईसी की हालत भी नही थी। एक बार इनके वालिद इनक्जे और इनके भाई के लिए कुछ कपड़े लाये और वो इन्हे पसंद ना आए, बगावती तेवर तब पहली बार दिखे जब ये इस बात पर नाराज़ हो कर घर से भाग निकले। एक शेर जो इन्होने अपने वालिद के नाम लिख छोड़ा था वो इस तरह था,
जबकि सबके वास्ते लाये हैं कपड़े सेल से,
लाये हैं मेरे लिए कैदी का कम्बल जेल से
खैर आगे की पढ़ाई लिखाई हुई पेशावर यूनिवर्सिटी से उर्दू और फ़ारसी में और बचपन की फकीरी को सहारा मिला शायरी का। जनाब लिखने लगे .... उम्दा शायरी करने लगे। कलम एक बार चल जाती है तो फिर मौत ही उसे रोकती है। फ़राज़ साहब मशहूर शायरों में से हो गए। शुरुआत में असर रहा अल्लामा इकबाल साहब का पर बाद में प्रभावित हो गए अली सरदार जाफरी और फैज़ अहमद फैज़ से ..... बस यहीं से चल निकला सिलसिला उर्दू की तरक्की पसंद शायरी का जो इतने मुकामों से गुज़रा की पूरी दुनिया उससे मुत्तास्सिर हुई। दुनिया ने जाना और माना की फ़राज़ मुशायरों की जान है।
अब और कितनी मुहब्बतें तुम्हें चाहिए फ़राज़,
माओं ने तेरे नाम पे बच्चों के नाम रख लिए।
अहमद फ़राज़ साहब साहब शायद आधुनिक उर्दू के उन गिने चुने शायरों में से हैं जिनको जितनी शिद्दत से पाकिस्तान में अवाम मोहब्बत करता है उतना ही इश्क हिन्दोस्तान की जनता को भी उनसे था। कई लोगों ने मुझसे उनके इन्तेकाल की ख़बर आने के बाद मुझसे पूछा की "क्या फ़राज़ साहब पाकिस्तान में रहते थे ?" हिन्दोस्तान का कोई भी बड़ा मुशायरा उनके बिना पूरा नहीं हुआ। आज वो महफ़िल सूनी हो गई है।
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चिराग़
लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चिराग़
बगावत की जुर्रत ऐसी की फौजी हुकूमत के खिलाफ इतना लिखा - इतना बोला की पहले जेल में रहे और फिर मुल्क से बदर हो कर ब्रिटेन और कनाडा में ज़िन्दगी बसर की पर हमेशा दिखे मुस्कुराते हुए। आम धारणा है की किसी शायर की कुछ ही नज्में ऐसी होती हैं जो उसे यादगार कर देती हैं ..... मैं कहूँगा की ज़रा फ़राज़ साहब को पढ़ कर देखें। इतना कुछ और हर बार उतना ही कमाल ...
फ़राज़ अब कोई सौदा कोई जुनूँ भी नहीं
मगर क़रार से दिन कट रहे हों यूँ भी नहीं
ऐसे शेर कि आप याद कर कर के लाजवाब हो जाएँ ,
यूँ तुझे ढूँढ़ने निकले के न आए ख़ुद भी
वो मुसाफ़िर कि जो मंज़िल थे बजाए ख़ुद
ऐसा साक़ी हो तो फिर देखिए रंगे-महफ़िल
सबको मदहोश करे होश से जाए ख़ुद भी
दिनकर जी अपनी एक कविता में कहते हैं कि पंछी और बादल भगवान् के डाकिये हैं जो एक मुल्क से दूसरे मुल्क में स्नेह का पानी बरसाने ...... बिना वीसा के ....... फ़राज़ साहब ज़िन्दगी में भले ही बिना वीसा के सरहदों को पार न कर पाये हो, उनका सुखन और अब उनकी यादें सरहदों की दीवारों की कैदी और सरकारों की रहमतों की मोहताज नहीं। उनका बदन अब ख़ाक के सुपुर्द है और उनकी रूह हम सब के अन्दर ......
जैसा कि वो ख़ुद कह गए
ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें के
जो रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जायेंगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जायेंगे
ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब तो रौशनी हैं, नवा हैं, हवा हैं
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़ख़ों से भी फुँकते नहीं
रौशनी और नवा और हवा के आलम
मक़्तलों में पहुँच कर भी झुकते नहीं
ख़्वाब तो हर्फ़ हैं
ख़्वाब तो नूर हैं
ख़्वाब तो सुक़्रात हैं
ख़्वाब मंसूर हैं