१८ मई, 2008 की रात, जगह थी नॉएडा के सेक्टर १२ के मेट्रो हॉस्पिटल का क्रिटिकल केयर सेंटर ......... मैं शांत और स्तब्ध खडा एक युग को अपने अवसान की ओर जाते देख रहा था........ देख रहा था एक भीष्म को शैया पर पड़े .... और सोच रहा था कि हाँ ये वाकई एक युग का अंत है। मैं तो मैं हूँ ही और यहीं हूँ पर वो युग आज बीत गया, भीष्म आज इच्छा मृत्यु को प्राप्त हो गया ........ और वो भीष्म थे हरकिशन सिंह सुरजीत...... भारतीय वामपंथ के पितामह ! मैं तब नोइडा में एक अदद मीडिया की नौकरी के लिए मन मार रहा था और तभी पता चला कि सुरजीत जी मेट्रो में भरती हैं...... पुराना सोशलिस्ट मन जोर मार गया और रात के ९ बजे मोटर साइकिल का हैंडिल अपने आप ही मुड गया मेट्रो हॉस्पिटल की ओर .... गेट पर गार्ड से पूछा कि सुरजीत जी यहीं भर्ती हैं ...... सर हाँ में हिला इशारा किया रिसेप्शन की ओर , रिसेप्शन पर कहा गया कि ऊपर दूसरी मंजिल पर क्रिटिकल केयर सेंटर में हैं ! ऊपर पहुंचा तो अजीब सी शान्ति मिली, बहुत भीड़ भाड़ नहीं, कोई उत्साही समर्थक नहीं; ना ही पार्टी नेताओं का जमावडा ....... सिर्फ़ दो घरवाले और लुधियाना से आए दो रिश्तेदार ! पहले बाहर बैठने को कहा गया तो मुलाक़ात हुई सुरजीत जी के बड़े बेटे से जो ब्रिटेन के ग्लासगो शहर से आए थे और आजकल वही रहते हैं ........ पता चला कि स्थिति ज्यादा नाज़ुक है ....... सुरजीत जी कोमा में हैं ही और फेफडे तथा गुर्दे दोनों ही काम नही कर रहे थे। उनके रिश्तेदारों से भी उनके व्यक्तित्व के बारे में कुछ चर्चा हुई और बेशक वे उनके राजनीतिक जीवन के बारे में बहुत नही जानते थे पर उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में ज़रूर जानकारी मिली।
तभी बाहर आए उनके पौत्र जो उनकी देखरेख कर रहे थे ....... मेरे ये बताते ही कि छात्र जीवन में स्टुडेंट फेडरेशन ऑफ़ इंडिया से जुडा रहा था तुंरत उन्होंने कहा कि आप साथ आयें और मुझे अन्दर ले गए, सामने की शैया पर मैंने वो देखा जो अब तक किताबो में पढा था ........ एक युग का अंत ! बिस्तर पर तमाम तरह की नलियों और उपकरणों के बीच में कुछ साँसे संघर्ष कर रही थी ....... पहली बार सुरजीत जी को बिना पगड़ी के देखा, देख रहा था एक युग को अचेतन अवस्था में और याद कर रहा था जब पहली बार उनको लखनऊ में और फिर सैकडो बार टीवी पर देखा था।
जितना जानता हूँ उनके बारे में वो सब आज याद आ रहा है क्यूंकि आज १ अगस्त २००८ को अब वे हमारे बीच नहीं हैं ........... एक आम नागरिक के तौर पर हम सब उनके बारे बस यही जानते हैं कि वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ( मार्क्सवादी ) के भूतपूर्व महासचिव और सबसे बुजुर्ग कम्युनिस्ट थे, कई लोग उन्हें वयोवृद्ध कामरेड के या कामरेड सुरजीत के नाम से भी जानते थे। उनको लेकर कई विवादित मुद्दे भी रहे और बिल्कुल ये दूसरो से और भीड़ से अलग होने की कीमत भी है कि आपको प्रसिद्द होने के साथ विवादित भी होना पड़ेगा। कामरेड सुरजीत का जन्म २३ मार्च १९१६ को जालंधर जिले के बुन्दाला में एक बस्सी जाट परिवार में हुआ, इसे संयोग कहें या विधि की भगत सिंह के इस कट्टर अनुयायी का जन्म १९२६ में उसी दिन हुआ जिस दिन १९३१ में भगत सिंह को फांसी दी गई। १९३० में सुरजीत ने किशोरावस्था में ही भगत सिंह की नौजवान भारत सभा की सदस्यता ले ली और आज़ादी की क्रांतिकारी आन्दोलन में कूद पड़े। २३ मार्च १९३२ को भगत सिंह के पहले शहादत दिवस पर सुरजीत ने होशियारपुर कचहरी परिसर में तिरंगा लहरा दिया जिसमे इन्हे दो गोलियाँ मारी गई, अदालत में पेश किए जाने पर जज को इन्होने अपना नाम लन्दन तोड़ सिंह बताया।
रिहाई के बाद सुरजीत पंजाब के साम्यवादियों के संपर्क में आए और १९३६ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ली, १९३८ में सुरजीत किसान आन्दोलन से जुड़ गए जब पंजाब किसान संघ की नींव पड़ी और वे उसके महासचिव बनाए गए। उसी साल उन्हें ब्रिटिश सरकार ने पंजाब से बाहर जाने का फरमान सुना दिया, यहाँ से वे पहुंचे उत्तर प्रदेश के सहारनपुर और वहां से चिंगारी नाम की इंकेलाबी पत्रिका निकालने लगे। तभी द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया और उनको भूमिगत होना पड़ा। फिर उन्हें गिरफ्तार करके लाहोर किले में क़ैद कर दिया गया। १९४४ में वे वहाँ से रिहा हुए और दोबारा किसान आन्दोलन में जुट गए। तभी देश आजाद हो गया ....... इस दौरान बंटवारे को लेकर हुए दंगो में हिंसा रोकने और सदभाव फैलाने की सुरजीत की कोशिशों को लोग आज भी याद करते हैं। १९५४ में भाकपा के तीसरे अधिवेशन में वे पार्टी की केंद्रीय समिति और पोलित ब्यूरो में चुने गए। वो इन पदों पर १९६४ में पार्टी के टूटने तक रहे फिर १९६४ में विवादित घटनाक्रम में भाकपा मार्क्सवादी की स्थापना हुई और तब से अप्रैल २००८ तक वे पार्टी के वरिष्ठतम क्रम पर रहे। यही नही पिछले दस सालो में गठबंधन की राजनीती में भी सुरजीत हमेशा धुरी बने रहे। अप्रैल २००८ में गिरते स्वास्थ्य की वजह से सुरजीत ने पार्टी के तमाम पदों से इस्तीफा दे दिया।
१९६२ में (कथित साम्यवादी) चीन के हमले के दौरान चीन का समर्थन करने वाले नेताओं में सुरजीत भी शामिल थे और ये विवाद जीवन पर्यंत उनके साथ जुड़े रहे। सुरजीत का ये कदम उनके पूरे राजनैतिक जीवन का सबसे ग़लत कदम माना जा सकता है पर फिर भी इसे सबसे दुस्साहसिक कदम भी कहेंगे ....... ऐसा दुस्साहस सुरजीत हमेशा करते रहे !
सुरजीत उन साम्यवादियों में रहे जो विवादित तो रहे पर कई मामलो में उनके विरोधी भी उनका सम्मान करते थे। वैसे भी कोई व्यक्ति सम्पूर्ण नहीं पर उसके कुछ महान काम उसकी तमाम गलतियों पर भारी पड़ते हैं। उनका दुस्साहस यह भी था कि एक ज़बरदस्त विवाद की आधार भूमि पर एक नयी पार्टी बना दी और आज वो देश की सबसे बड़ी साम्यवादी राजनैतिक पार्टी है .......... ये श्रेय उनसे नहीं छीन सकते हम .......... हम में से कितने लोग एक झंडा फहराने के लिए सीने पर गोलियाँ खाने को तैयार हैं ? ...... हम में से कितने किसानो के हक के लिए अपनी जायदाद बेच देंगे ? हम में से कितने लोग खालिस्तान अलगाववादियों के ख़िलाफ़ खुल कर खड़े हो गए था ?
१८ मई की रात मेट्रो हॉस्पिटल में मेरे सामने सुरजीत जी कोमा में पड़े मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे ................ और मैं पहुँच गया था लखनऊ के उस वक़्त में जब मेरी उनसे पहली और चेतन अवस्था में आखिरी भेंट हुई थी ! ...... तब मैंने उनसे अभिवादन करते हुए कहा था
' कामरेड लन्दन तोड़ सिंह को मेरा सलाम '
और उधर से जवाब आया कि
" लन्दन क्या जो भी चीज़ तुम पर ज़बरदस्ती थोपी जाए उसे तोड़ डालो ! "
यादों से लौट कर मैं फिर हॉस्पिटल में था........और सोच रहा था कि क्या उनसे ऐसी ही दो मुलाकातें होनी थी .... एक जिसमे ऐसा जोश था और एक में जिंदगी के अंत का सन्नाटा ?
फिर अचानक देखा कि सुरजीत जी ने अवचेतन अवस्था में एक बार ज़ोर से साँस ली .... जैसे कहना चाहते हों कि लड़ाई तो हमेशा ही है, चाहे दुनिया से या ख़ुद से ! मैं फिर शांत था क्यूंकि देख लेना चाहता था पूरे ध्यान से और चाहता था कि हमेशा के लिए हिस्सा बन जाऊ उस युग का जो अब ख़त्म हो गया...........
मेरे सामने भीष्म की भांति एक युग और वाकई भारतीय राजनीति शर शैया ही है ..... एक महागाथा अपनी परिणिती की ओर थी .............. आज वो पूर्ण हुई ! विवाद तो होंगे ही ..... गलतियां भी होनी ही हैं पर युग तो युग है ........ यह एक युग की समाप्ति थी ....भारतीय साम्यवाद के !
मयंक सक्सेना
9311622028 mailmayanksaxena@gmail.com
धन्यवाद मयंक जी, सदी के इस भीष्म पितामह से इतना जीवंत परिचय करवाने के लिए. जैसे जैसे पढता गया वैसे वैसे सभी घटनाएं आँखों के सामने से गुज़र रही थीं. साथ ही एक अफ़सोस भी कि काश ये पोस्ट कुछ दिन पहले पढ़ी होती तो हॉस्पिटल के इतना नजदीक होते हुए भी एक दर्शन न मिल पाने का गम न रहा होता. और अब ये सम्भव नही हो पायेगा..
ReplyDeleteचलिए, आपकी नज़र से ही सही, महाप्रणेता के दर्शन तो हुए..
umda lekh
ReplyDeletejanmtithi 1926 ki nahi hai 1916 ki hai...................use theek kariye ..................well shot !
ReplyDeletejanmtithi 1926 ki nahi hai 1916 ki hai...................use theek kariye ..................well shot !
ReplyDeletetheek se dekhe janaab 1916 hi likha hai !
ReplyDeleteAn introduction with a new conception for those who might have started knowing him recently.
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