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Sunday, August 24, 2008

जन्माष्टमी विशेष ...

आज जन्माष्टमी है ..... इसका पौराणिक और धार्मिक महत्त्व हम सभी जानते हैं पर वस्तुतः इस दिन की सबसे बड़ी प्रासंगिकता और महत्त्व उस मानव के चरित्र के कारण है जो अपनी बुद्धि और दृढ़ निश्चय के कारण महा मानव की श्रेणी में जा खडा हुआ और वह महामानव है कृष्ण ! कृष्ण जो प्रतीक हैं चिर यौवन के, प्रेरणा हैं अन्याय के ख़िलाफ़ विद्रोह की और सिद्धांत हैं दृढ़ निश्चय की जीत की ..................


अभी तक ब्लॉग पर हम जिस तरह की सामग्री आपके लिए लाते रहे हैं, ज़ाहिर सी बात है की हम उस स्तर से नीचे नहीं जाना चाहते हैं और दूसरों से अलग और सबसे बढ़ कर अलग तरीके से और ज्यादा गहराई में आपको जानकारी देना चाहते हैं सो हमने निर्णय किया कि इस बार हम लोक साहित्य की उस महान परम्परा को अवतरित करेंगे जो कृष्ण का नाम लेते ही मन में गूँज उठती है। जी बिल्कुल, हम बात कर रहे हैं भक्ति काल की उस लहर की जो कृष्ण भक्ति शाखा के नाम से जानी जाती है और जिसने साहित्य को अब तक के सबसे उम्दा साहित्य से नवाजा। आज हम लेकर आए हैं कुछ ऐसे पद जो बचपन की याद ताज़ा कर देंगे ....... कुछ ऐसे जो हमने सुने नहीं हैं पर वे उत्कृष्ट हैं .......







सूरदास



कहा जाता है की कृष्ण भक्ति शाखा का इनसे बड़ा कवि कोई नहीं हुआ। जन्म १४७८ ईस्वी में मथुरा आगरा मार्ग के किनारे स्थित रुनकता नामक गांव में हुआ। सूरदास के पिता रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषया में मतभेद है। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। अष्टछाप कवियों में एक । सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में १५८० ईस्वी में हुई।



सूरदास के पाँच प्रमुख ग्रन्थ माने जाते हैं



१ सूरसागर



२ सूरसारावली



३ साहित्य-लहरी



४ नल-दमयन्ती



५ ब्याहलो



सूरदास ने जिस तरह का कृष्ण के बाल रूप का वर्णन किया है शायद ही कोई कवि किसी भी भाषा में उतना सुंदर और सहज बखान पाया है , यही वजह है कि आज भी हमारे जेहन में उनके पद गूंजते हैं ..... प्रस्तुत है बाल रूप और नटखट पन....







तेरैं लाल मेरौ माखन खायौ ।



दुपहर दिवस जानि घर सूनौं, ढूँढ़ि-ढँढ़ोरि आपही आयौ ॥



खोलि किवार, पैठि मंदिर मैं, दूध-दही सब सखनि खवायौ।



ऊखल चढ़ि सींके कौ लीन्हौ, अनभावत भुइँ मैं ढरकायौ ॥



दिन प्रति हानि होति गोरस की, यह ढोटा कौनैं ढँग लायौ।



सूरस्याम कौं हटकि न राखै, तै ही पूत अनोखौ जायौ ॥







( (एक गोपी उलाहना देती है-) तुम्हारे लालने मेरा मक्खन खाया है । दिन में दोपहर के समय घर को सुनसान समझकर स्वयं ढूँढ़-ढ़ाँढ़कर इसने स्वयं खाया ( अकेले ही खा लेता तो कोई बात नहीं थी। किवाड़ खोलकर, घर में घुसकर सारा दूध -दही इसने सखाओं को खिला दिया । ऊखल पर चढ़कर छींके पर रखा गोरस भी ले लिया और जो अच्छा नहीं लगा, उसे पृथ्वी पर ढुलका दिया । प्रतिदिन इसी प्रकार गोरस की बरबादी हो रही है, तुमने इस पुत्र को किस ढंग पर लगा दिया । श्यामसुन्दर को मना करके घर क्यों नहीं रखती हो । क्या तुमने ही अनोखा पुत्र उत्पन्न किया है ?)



माखन खात पराए घर कौ।




नित प्रति सहस मथानी मथिऐ, मेघ-सब्द दधि-माट-घमरकौ ॥




कितने अहिर जियत मेरैं घर, दधी मथि लै बेंचत महि मरकौ ।




नव लख धेनु दुहत हैं नित प्रति, बड़ौ नाम है नंद महर कौ ॥




ताके पूत कहावत हौ तुम, चोरी करत उघारत फरकौ ।




सूर स्याम कितनौ तुम खैहौ, दधि-माखन मेरैं जहँ-तहँ ढरकौ ॥




( (माता समझाती हैं-) `तुम दूसरे के घर का मक्खन खाते हो ! (तुम्हारे घर में) प्रतिदिन सहस्त्रों मथानियों से दही मथा जाता है, दही के मटको से जो घरघराहट निकलती है, वह मेघगर्जना के समान होती है । कितने ही अहीर मेरे घर जीते (पालन-पोषण पाते) हैं, दही मथकर वे मट्ठे के मटके बेच लेते हैं । व्रजराज श्रीनन्द जी का बड़ा नाम है, उनके यहाँ प्रतिदिन नौ लाख गायें दुही जाती है । उनके तुम पुत्र कहलाते हो और चोरी करके छप्पर उजाड़ते (अपने घर की कंगाली प्रकट करते) हो । श्यामसुन्दर! तुम कितना खाओगे, दही-मक्खन तो मेरे घर जहाँ-तहाँ ढुलकता फिरता है ।' )

मैया मैं नहीं माखन खायौ ॥



ख्याल परै ये सखा सबै मिलि, मेरैं मुख लपटायौ ॥



देखि तुही सींके पर भाजन, ऊँचैं धरि लटकायौ ॥



हौं जु कहत नान्हे कर अपनैं मैं कैसैं करि पायौ ॥



मुख दधि पोंछि, बुद्धि इक कीन्हीं, दोना पीठि दुरायौ ॥



डारि साँटि, मुसुकाइ जसोदा, स्यामहि कंठ लगायौ ॥



बाल-बिनोद-मोद मन मोह्यौ, भक्ति -प्रताप दिखायौ ॥



सूरदास जसुमति कौ यह सुख, सिव बिरंचि नहिं पायौ ॥



( (श्यामसुन्दर बोले-) `मैया ! मैंने मक्खन नहीं खाया है ॥ ये सब सखा मेरी हँसी कराने पर उतारू हैं, इन्होंने उसे मेरे (ही) मुखमें लिपटा दिया तू ही देख ! बर्तन तो छींके पर रखकर ऊँचाई पर लटकाये हुए थे, मैं कहता हूँ कि अपने नन्हें हाथों से मैंने उन्हें कैसे पा लिया ? यों कहकर मुख में लगा दही मोहन ने पोंछ डाला तथा एक चतुरता की (मक्खन भरा) दोना पीछे छिपा दिया ॥ माता यशोदा ने (पुत्र की बात सुनकर) छड़ी रख दी और मुसकराकर श्यामसुन्दर को गले लगा लिया ॥ सूरदास जी कहते हैं कि प्रभु ने अपने बाल-विनोद के आनन्द से माता के मन को मोहित कर लिया। (इस बालक्रीड़ा तथा माता से डरने में) उन्होंने भक्ति का प्रताप दिखलाया ॥ श्रीयशोदा जी को जो यह (श्याम के बाल-विनोद का) आनन्द मिल रहा है, उसे तो शंकर जी और ब्रह्मा जी (भी) नहीं पा सके ॥







अब एक मेरे मन की ....



बचपन से ही सूर का एक पद मुझे परम प्रिय रहा है...इस प्रसिद्द पद में सूर बताते हैं कि किस तरह बाल कृष्ण यशोदा से चाँद को खिलौना समझ दिला देने की जिद करते हैं ,



मैया, मैं तौ चंद-खिलौना लैहौं ।



जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं ॥



सुरभी कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं ।



ह्वै हौं पूत नंद बाबा को , तेरौ सुत न कहैहौं ॥



आगैं आउ, बात सुनि मेरी, बलदेवहि न जनैहौं।



हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलहिया दैहौं ॥



तेरी सौ, मेरी सुनि मैया, अबहिं बियाहन जैहौं ॥



सूरदास ह्वै कुटिल बराती, गीत सुमंगल गैहौं ॥



(श्यामसुन्दर कह रहे हैं) `मैया! मैं तो यह चंद्रमा-खिलौना लूँगा (यदि तू इसे नहीं देगी तो ) अभी पृथ्वी पर लोट जाऊँगा, तेरी गोद में नहीं आऊँगा । न तो गैया का दूध पीऊँगा, न सिर में चुटिया गुँथवाऊँगा । मैं अपने नन्दबाबा का पुत्र बनूँगा, तेरा बेटा नहीं कहलाऊँगा ।' तब यशोदा हँसती हुई समझाती हैं और कहती हैं-`आगे आओ ! मेरी बात सुनो, यह बात तुम्हारे दाऊ भैया को मैं नहीं बताऊँगी । तुम्हें मैं नयी पत्नी दूँगी ।' (यह सुनकर श्याम कहने लगे-) ` तू मेरी मैया है, तेरी शपथ- सुन ! मैं इसी समय ब्याह करने जाऊँगा।' सूरदास जी कहते हैं--प्रभो! मैं आपका कुटिल बाराती (बारात में व्यंग करने वाला) बनूँगा और (आपके विवाह में) मंगल के सुन्दर गीत गाऊँगा ।



1 comment:

  1. Sir, Mujhe bhi hamesha lagta hai ki 1 andha vyakti itni sajiv rachnaye kaise likh sakta hai.... apne unke Rachna Sagar se jo pad parosay bakai bhoot hi khoobsurat hai.......

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