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Sunday, January 11, 2009

मेरे नज़र में छग...

4 जून 2008 की सुबह राज्य की राजधानी में पहली बार मैं जब आया तो यहाँ की भीषण गर्मी ने मुझे पिछ्छे पांव लौटने का सा अनुभव कराया। तारीख़ 06 को हुए दूरदर्शन के इंटरव्यूह में चयन के बाद ज्वाइन ना करने की बजह यहाँ की जलती धूप सुलगती दोपहर और आंचभरी शाम हल्की गर्म रात ऊपर से जहां-तहां सढ़ांध मारती दुर्गंध उफ कैसे रहूंगा इस शहर में.....जबकि नौकरी मेरी ज़रूरत ही नहीं बल्की मज़बूरी भी थी॥फिर भी ना बाब ना यहां रहना....कभी नहीं सोचा था इत्तेफ़ाक से ज़ी24घंटे,छत्तीसगढ़ का इंटरव्यूह कॉल और समयांतर में चयन लगा सखाजी की यही इच्छा है....तब इस राज्य को कर्मभूमि बनाने का फैसला महज़ एक नौकरी नहीं बल्की इसे समझने की एक ज़िद और जानने की जिज्ञासा भी थी.....शुरूआत में जितनी दिक्कतें हो सकती थीं होती गईं...बाद में लगा प्रदेश ना सिर्फ नक्सली हिंसा का पर्याय है बल्की औऱ भी कुछ है..और भी कुछ हां जी और भी कुछ... राज्य में कितनी प्राकृतिक संपदा है यह मेरे लिए गौढ मुद्दा है जबकि प्रदेश में कितना प्राकृतिक सौंदर्य है यह बड़ा सवाल है...आज की आपाधापी भरी ज़िंदग़ी में वक्त कस कर भिंची मुठ्ठियों से भी खिसक रहा है...जीवन एक कठिन चुनौती बनता जा रहा है..रचनात्मकता और तकनीकि का शीतयुद्ध सा छिड़ा है...ऐंसे में दो पल घने पेड़ की छांव में बिता कर जो सुख मिलता है वह किसी उपभोग में नहीं है......मुझे यह प्रदेश सिर्फ इसीलिए अच्छा लगा कि यहाँ के लोग सीधे सरल भोलेनाथ हैं जो इनकी सबसे बड़ी कमी भी बना हुआ है,ज़्यादा पसंद आया। इतना ही नहीं यहां के लोगों के बोल-चाल रहन-सहन में गांव की खुशबू है जो अक्सर तथाकथित वैश्वीकरण में हीन भाव समझा जाता है...शेष सभी संपदाओं का भंडार व्यापारियों के लिए छोड़ता हूं कि वे ही गौर फरमाये और यहाँ के मूलनिवासियों का जो शोषण कर सकें वे करें....इस पर लकीर पीटना मुझे नहीं आता....मेरा राज्य के प्रति किसी अज़नवी को कोई भी राय बिना समझे बनाने से रुकने का आग्रह है... युवा अग्रणी पठनशील जिज्ञासु कर्मशील लोगों से इस राज्य को बड़ी उम्मीदें हैं। सिर्फ लोहे,लक्कड़,धातु धतूरों से कोई राज्य बनिया दृष्टि से संपन्न हो सकता है लेकिन लोगों की आत्मीयता,स्वागतातुरता,ईमानदारी,और फका दिली ही सच्चे मायने में रहने,बसने का सा महसूस कराती है...वरना छत की तलाश में लोग कहीं भी घर बनाने में नहीं चूकते.....और ये सब इस राज्य में मैने महसूस किया है...वस थोड़ा सा लोग कन्फ़्यूज़न छोड़ दें कुछ ज़्यादा ही किंकर्तव्यव्यूमूढ़ हैं.....अस्तु.....

5 comments:

  1. अब धीरे-धीरे बडे शहरों से ज्यादातर लोगों का मोह भंग होना शुरू हो गया है......अच्छा मुद्दा उठाया है।

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  2. बिल्कुल ..... बरुन हमेशा तुम्हारे इसी रूप को ....इसी लेखक को देखना चाहता था.....दरअसल यह लेख नहीं एक गद्य काव्य है जो छोटे शहरों और भदेसपन की सोंधी खुशबू लिए हुए है ........ छोटे शहर हमारी विरासत के स्मारक और आने वाले कल के स्वप्न संस्थान हैं....और बड़े शहर कब्रगाह हैं....
    छत्तीगढ़ की तस्वीर के और शब्दचित्र भी हम आकी कलम से देखना चाहेंगे....क्यों न इस पर आप एक लेख श्रृंखला लिखें ?
    एक बेहद उम्दा लेख .......

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  3. आपका प्रोत्सहयोग रहेगा तो ज़रूर कुछ लिख सकूंगा.....मयंक जी कोशिश करूंगा इस पर एक लेख श्रृंखला लिखी जाए मगर ये मेरा माद्दा नहीं बड़ा दुर्लभ और बडप्पन का काम है फिर भी प्रयास ज़रूर करूंगा और अगर लिख सका तो आपके इस प्रोत्साहन वाक्य को .द रखूंगा.........धन्यवाद

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  4. कौन हो दोस्त तुम?? तुमने तो शान बढ़ा दी अपने केव्स की....वाह बहुत बहुत बढिया....कभी फुर्सत मे मिलो यार....बहुत अच्छा लिखते हो...मैंने भी आपके केव्स मे ही २ साल बिताया है...अभी भाजपा मे हूँ....अपने किसी साथी से पूछोगे तो शायद वो बता दें मेरा पता ठिकाना....वाह ...बहुत बढिया....इलेक्ट्रोनिक की आपाधापी के बीच भी लिखना मत छोड़ना कभी...बधाई.
    -जयराम दास.

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