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Wednesday, August 27, 2008

बिंद्रा का अभिनव प्रदर्शन

हिन्दी पत्रकारिता के सशक्त हस्ताक्षर हैं एन डी टीवी के रवीश कुमार। रवीश जी नियमित तौर पर वेब के लिए अपने अनुभव और अपने विचार लिखते रहते हैं, प्रस्तुत लेख रवीश जी ने वेब दुनिया के लिए लिखा था। गौर फरमायें काफ़ी गहन विश्लेषण और सटीक कटाक्ष है .....

एकलव्य तीरंदाज़ नहीं बन सका, क्योंकि द्रोण ने उससे अंगूठा मांग लिया। अर्जुन सबसे बड़ा धनुर्धर बन गया, क्योंकि उसके पास द्रोण थे, और राजपाट था। एकलव्य की कहानी आज भारतीय खेलों की कहानी है। हालांकि सामाजिक दायरे में एकलव्य की कहानी सवर्ण मानसिकता की कहानी है। हमारी सरकारों ने द्रोण की भूमिका निभाकर न जाने कितने एकलव्यों को सुविधाओं की कमी में मार दिया। 112 साल गुज़र गए ओलिम्पिक में जाते हुए। एक अरब की आबादी वाले इस मुल्क में न तो एकलव्य को कामयाबी मिली, न अर्जुन को।
इतिहास शायद खुद को दोहरा रहा है। अभिनव बिंद्रा अर्जुन बन गया है। उसके पास भी अर्जुन की तरह अपने घर के पीछे शूटिंग रेंज है। तमाम तरह की सुविधाएं हैं। लक्ष्य वही है - सबसे बड़ा निशानेबाज़ बनना है। एकलव्य की कहानी ने हम सबको एक अपराधबोध में जीने के लिए मजबूर किया। द्रोण की नाइंसाफी आज तक टीस पैदा करती है कि अपनी मेहनत से पैदा हुए धनुर्धर को खत्म कर दिया गया।
लेकिन इस बदलती दुनिया में अर्जुन की तरह सुविधा और एकलव्य की तरह इरादा चाहिए। अभिनव के पास दोनों था। उसके पिता द्रोण की तलाश में नहीं भटके। बल्कि घर के पीछे ही एकलव्य की तरह साधना का हर सामान जुटा दिया। 13 साल के शूटिंग करियर में यह लड़का ओलिम्पिक में स्वर्ण पदक तक पहुंच गया। ज़ाहिर है, अभिनव की कामयाबी एक नई कहानी बना रही है। समझा रही है कि सुविधा और लगन दोनों चाहिए, दुविधा से काम नहीं चलेगा।
हम कब तक एकलव्य की कहानी पर रोते रहेंगे और अर्जुन की कामयाबी को शक से देखते रहेंगे। दोनों ही कहानियां कभी बदलेंगी नहीं, लेकिन आगे तो बढ़ना ही होगा। एक दलित की बेटी मायावती ब्राह्मणों को अपनी पार्टी में जोड़कर प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रही है। जिस मनुवाद के ख़िलाफ़ मायावती और उनकी पार्टी बीएसपी खड़ी हुई, उसी मनुवाद के प्रतीक ब्राह्मणों से हाथ मिलाया... सिर्फ इसलिए नहीं कि सत्ता हासिल करनी थी, बल्कि इस प्रक्रिया में इतिहास में पहली बार किसी अभियान में दोनों करीब भी आ गए। करीब आए होंगे तो जाति की कई वर्जनाएं ध्वस्त हुई होंगी। नाम के लिए ही सही, वोट के लिए सही, ब्राह्मण दलितों की रैली या उनकी पार्टी से जुड़े तो... यह एक बड़ा प्रयोग था।
चंडीगढ़ में अभिनव बिंद्रा के पिता एएस बिंद्रा ने भी कुछ ऐसा ही प्रयोग कर दिया। बता रहे थे, करना ही था। किसी न किसी को तो करना ही होगा। पैसे वाले बिंद्रा ने पैसे को निष्ठा और लक्ष्य के सामने टिकने न दिया। एकलव्य किसी जंगल में पैदा नहीं होगा। अर्जुन किसी शूटिंग कमेटी से पैदा नहीं होगा। अभिनव बनना होगा तो दोनों चाहिए।
एकलव्य की साधना, अर्जुन का निशाना और निशाना लगाने के लिए महंगे शूटिंग रेंज और मां-बाप का साथ। यह एक नया प्रयोग है। इस प्रयोग ने 112 साल की हताशा को खत्म कर दिया। मायावती के प्रयोग ने दलितों और ब्राह्मणों के बीच हज़ारों साल की दूरी को कम कर दिया। अभिनव बिंद्रा ने इसे शूटिंग में करके दिखा दिया।

रवीश कुमार
साभार: web duniya

2 comments:

  1. सही है-बेहतरीन लिखा!!

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  2. is desh me yahi to ho raha hai . ek sach likhane ke liye dhanyawaad.

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