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Monday, December 1, 2008
भारतीय खेती की दशा और दिशा
भारतीय खेती की दशा और दिशाखेती किसी देश के आर्थिक सामाजिक विकास में मील का पत्थर मन जाता है. औरइसके लिए जरुरी होती है एक अदद कृषि नीति की .आदिमकाल से लेकर आज़ादी सेपहले तक हम खाद्द्यानो के उत्पादन में अव्वल थे .विदेशों में हमारा अनाजभेजा जाता था और विश्व व्यापर में आज के मुकाबले हमारी भागेदारी भी बहुतज्यादा थी. लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पड़े भीषण सीखे आकाल ने देशको अन्न संकट की ओर धकेल दिया. कितने भूखे मरे जो अब भी मर रहे है . इसकेपीछे एक जिम्मेदार कृषि नीति का घोर आभाव है. हम आज भी अनाज की कमी सेजूझ रहे हैं . अब तक की कृषि नीतियां नियोजित लक्ष्यों को पाने में नाकामरही हैं जबकि इनका उद्देश्य रहा है उत्पादन को बढ़ाना,वैज्ञानिक कृषि कोबढ़ावा देना,किसानो की दशा सुधारना और इसके जरिये देश inclusive विकासकरना.लेकिन हो इसके thik उल्टा रहा है.किसान आत्महत्या कर रहा है, क़र्ज़के बोझ तले दबता जा रहा है. बाढ़, मानसून की अनिश्चितता ,और भीषण अकाल,सिंचाई सुविधाओं का आभाव असमय ही किसानों को यमदेव के पास पधारने के लिएमजबूर कर रहा है . देश में अबतक चार कृषि नीतियां :आज़ादी के बाद से १९९२तक, राष्ट्रीय कृषि नीति १९९२,२०००,२००७ लागू हो चुकी हैं.इससे पहले कृषिवैज्ञानिक नॉर्मन बोरलाग के नेत्रित्व में १९६६-६७ में हरित क्रांति होचुकी है जो उत्तरप्रदेश,पंजाब ,हरियाणा तक ही सीमित था ने देश के कृषिक्षेत्र में एक नया जोश भरा ,उत्पादन में वृद्धि हुई . दूसरे हरितक्रांति को लेकर हमारे नेता जो लोगों में गरमा-गरम बहसबाजी का दौर जारीहै. इससे पहले भी देश में लाल नीली,पीली और श्वेत क्रांति हो चुकी हैजिससे देश के किसानों की दशा में कुछ खास फर्क नहीं पड़ा है. हमारेभारतीय खेती की मुख्य विशेषता है लागत ज्यादा ,मुनाफा कम . शायद यही वजहहै की जीडीपी में खेती की कूल भागेदारी घटकर १८ प्रतिशत रह गई है और अगरयही रवैया रहा तो ११ वीं पंचवर्षीय योजना के ४ फीसदी कृषि विकास थर कोपाना ईद का चाँद देखने जैसा हो जाएगा .अगर कृषि नीति २००७ के लक्ष्योंभूमि-सुधार ,जल-प्रबंधन,किसानों को सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा,इनके आय मेंबढोतरी,कृषि में सार्वजनिक निवेश को बढ़ावा और सहज क़र्ज़ मुहैया करानेके साथ-साथ एम्.एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में २००४ में गठित राष्ट्रीयकिसान आयोग के सिफारिशों पर अगर ध्यान दिया जाए तभी देश की बदहालीखुशहाली में बदल पायेगी वरना ऐसे आयोगों के गठन का फिर कोई मतलब नही रहजाएगा. इसलिए वक्त की नजाकत को समझते हुए आज कृषि के विकास को प्राथमिकतादेना,किसानो को आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराने,सहज ऋणदिलाना,तकनीकी प्रशिक्षण देना लाजिमी हो गया है वरना हमारा वार्षिकउत्पादन जो पिछले कई सालों से २१७ मिलियन टन के जो चक्रव्यूह में जो फंसाहै उसी में अटका रह जयेगा और हम हमेशा की तरह विदेशों से अनाज निर्यात कामुंह ताकते रह जायेंगे . Om Prakash (MABJ) Makhanlal Chaturvedinational University of Journalism, Bhopal.
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धन्यवाद ओमप्रकाश ...... कम से कम कोई तो ब्लॉग पर मुद्दों की बात कर रहा है.....मैं तुम्हारे लेख से ८०% सहमत हूँ !
ReplyDeleteThankyou Sir I always try to write something different to others.but I learn lot more things to you.So please guide me Sir.
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