एक बहुप्रतीक्षित जिज्ञासा का समापन हुआ और कल देर शाम तक जम्मू और कश्मीर की सभी ८७ विधानसभा सीटों के चुनाव नतीजे हम सबके सामने थे। इन नतीजों से चारों तरफ़ काफ़ी नतीजे निकाले जा सकते हैं और सबसे बड़ी बात किकुछ चीज़ों पर विचार करने की भी आवश्यकता महसूस होती है। क्या सोचने की ज़रूरत है इस पर अगली पोस्ट में चर्चा की जायेगी पर क्या अलग अलग बातें निकल के आती हैं उस पर बात करते हैं। सबसे पहले बात नतीजों की,
चुनाव परिणाम जहाँ कि कहा जा रहा है कि जनता ने लोकतंत्र को जिताया है इस प्रकार रहे,
नेशनल कोंफ्रेंस: २८ सीट
पीपुल्स डेमोक्रटिक पार्टी: २१ सीट
कोंग्रेस: १७ सीट
भाजपा: ११ सीट
अन्य: १० सीट
दरअसल इन परिणामों को किसी एक वाद या धरा से जोड़ कर देखना मुश्किल है....और यह दूसरी बार है जब कश्मीर में जनता ने एक त्रिशंकु विधानसभा चुनी है। कौंग्रेस को ज़ाहिर तौर पर नुक्सान हुआ पर उस नुक्सान का फायदा किसी एक दल को मिलने की जगह बनता हुआ नज़र आया है और यह दिखा रहा है कि जनता के अलग अलग धडो में अलग अलग विचार चल रहा था।
नेशनल कौन्फ्रेंस की सीट पिछली बार भी उतनी ही थी और इस बार भी उतनी ही रही इसका सीधा अर्थ यह है कि उन्होंने कोई तीर नहीं मारा है और वे वहीं खड़े हैं...पर कौंग्रेस की सीट कम होने का फायदा उसे मिला। इससे यह ज़रूर कहा जा सकता है कि फारूक और उमर के लिए कश्मीरी अवाम का प्यार कम नहीं हुआ है पर बढ़ा भी नहीं है।
उधर पी डी पी की सीट पिछली बार की सोलह से बढ़कर इस बार २१ हो गई है, इसके दो कारण हो सकते हैं एक यह कि वे शायद अपनी बारी में कुशल प्रशासन दे सके (जो कहना अतिश्योक्ति होगा) और दूसरा यह कि वह इन चुनावों में अपने पुराने घिसे पिटे कश्मीरियत/ स्वायतता के राग और अमरनाथ बवाल को भुनाने में सफल रही। पर सीट बढ़ने पर भी सरकार बना पाने की स्थिति में वह नही दिखती है।
कौंग्रेस दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से अमरनाथ विवाद का शिकार हो गई। गुलाम नबी की सरकार ने काम ठीक ठाक किया पर अमरनाथ विवाद में जम्मू के हिन्दुओं से उन्होंने नाराजगी मोल ली और उनकी नाव गोते खाने लगी हालांकि अभी भी सत्ता की चाबी उनके ही पास है।
सबसे ज्यादा किसी को फायदा हुआ तो वह है भारतीय जनता पार्टी, सही समय पर मौके की नब्ज़ पकड़ कर उसने जिस तरह जम्मू में अमरनाथ विवाद को हवा दी और उग्र आन्दोलन चलाया; उसका पूरा फायदा उसे हुआ। एक बार फिर भाजपा को ईश्वर के नाम का सहारा मिला और इस तरह धर्म के चोर दरवाज़े से भाजपा जम्मू कश्मीर में अपनी राजनीतिक ज़मीन तलाशने में कामयाब हुई। भाजपा को ११ सीट मिली हैं जबकि पिछली बार वह १ सीट ही जीत पायी थी।
पर शायद सबसे बड़ा नुक्सान किसी का हुआ है तो वह है अन्य जिनमे अधिकतर निर्दलीय हैं, वे बेचारे २२ से घटकर १० पर आ गए हैं। इनका सबसे बड़ा नुक्सान किया है भाजपा ने और फिर पीपुल्स डेमोक्रटिक पार्टी ने, शायद यह पिछली बार वाली संख्या में होते तो कौंग्रेस की जगह इनके हाथ में सत्ता की चाबी होती।
लेकिन जब हम इन चुनावों के परिणामों का विउश्लेशन करेंगे तो कई चौकाने वाली बातें निकलेंगी। पहला तो यह कि जम्मू की और कश्मीर की अवाम की सोच बिल्कुल अलग अलग है। भाजपा की चकित करने वाली बढ़त ने यह स्पष्ट संदेश दिया है कि अमरनाथ मुद्दे पर वह भाजपा के रुख का समर्थन करती है। दूसरी ओर कश्मीर की अवाम ने पी डी पी को ज्यादा सीट दे कर कहीं न कहीं अमरनाथ मुद्दे पर जम्मू की जनता से विरोध जताया है और कहीं न कहीं इसके और भी खतरनाक छुपे संकेत हैं और वह है कि कट्टरपंथी पूरे भारत की तरह यहाँ भी हावी हैं।
यही नहीं निर्दलियों की घटती संख्या यह भी संकेत देती है कि लोग निर्दलीय उम्मीदवार की जगह पार्टी को वोट देना बेहतर समझ रहे है जबकि पिछली बार की स्थिति इससे अलग थी। लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि लोगों ने वहाँ की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी कौंग्रेस की बजाय क्षेत्रीय दल को वोट देना बेहतर समझा।
पर सबसे बड़ा जो सवाल मेरे जेहन में उठ रहा है कि कहीं यह जम्हूरियत के साथ साथ अलगाववाद को भी वोट तो नहीं है ? जम्मू और कश्मीर में एक ही मुद्दे पर आधारित मतदान के दो परस्पर विरोधी रुख कहीं जम्मू और कश्मीर में दो ध्रुवों के कट्टरपंथ की हवा के दिशा सूचक तो नहीं ? कहीं ऐसा तो नहीं की कश्मीर के लोग अलगाव वाद के रास्ते पर चलते हुए मूलभूत विकास भी चाहते हैं और इस लिए वोट भी करते हैं ?
हालांकि ऐसा पूरी तरह नहीं कहा जा सकता क्यूंकि पी डी पी ने जम्मू में भी २ सीट जीती हैं, फिर भी सवाल बड़े हैं क्यूंकि भले ही सरकार इन चुनावों को जम्हूरियत की जीत बता रही हो, गौर से देखने पर यह कट्टरपंथ की बढ़त भी है। क्या भाजपा की बढ़त बदलाव का संकेत है या घाटी में राजनीतिक कट्टरपंथ के नए युग कान सूत्रपात ? क्या केवल चुनाव हो जाना और सरकार बन जाना NC और पी डी पी के भारतीय समर्थक दल होने का प्रतीक हैं या इस बहाने अप्रत्यक्ष रूप से अलगाव वाद के एजेंडे को आगे बढाया जा रहा है और वह भी सरकारी खर्चे पर. सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि अलगाववादी गुटों की अनदेखी कर के मतदान तो हुआ है पर आज भी वहा के अवाम के लिए बड़ा क्या है, भारतीयता या कश्मीरियत ?
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