एक कवि था जिसने हमें यह बताया की किस प्रकार प्रेम की कोमल अनुभूतियों और जीवन के कड़वे सच को एक साथ बिठा कर दोनों से बातें की जा सकती है.....एक कवि था जिसने तब द्रोह्गान किया जब दुनिया उसकी दुश्मन थी, एक कवि हुआ जिसने लिखा वो जो लिखा ना गया उसके पहले न उसके बाद......
१९७१ में पाब्लो नेरुदा को साहित्य का नोबेल मिला तब वे किस्मत से फ्रांस में चिली की राजदूत थे नहीं तो शायद फरारी में होते और अपना पदक लेने भी ना जा पाते। १२ जुलाई १९०४ को चिली के छोटे शहर पराल में पैदा हुए नेरुदा ने तानाशाहों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और देश छोड़ने को मजबूर हुए, इटली में शरण लेने गए तो वहाँ भी छुप छुप कर रहे.....अलग अलग तरह की कवितायें लिखी....एक ओर प्रेम की आकांक्षाओं से भरी तो दूसरी ओर बगावत और यथार्थ के तेवरों से भरी......ऐसी ही एक कविता पेश है.........
इस कविता का अनुवाद प्रसिद्द कवि सुरेश सलिल ने किया है और उनके अनुदित नायक के गीत संग्रह में यह कविता उपलब्ध है।
गरीबी
आह, तुम नहीं चाहतीं--
डरी हुई हो तुम
ग़रीबी से
घिसे जूतों में तुम नहीं चाहतीं बाज़ार जाना
नहीं चाहतीं उसी पुरानी पोशाक में वापस लौटना
मेरे प्यार, हमें पसन्द नहीं है,
जिस हाल में धनकुबेर हमें देखना चाहते हैं,
तंगहाली ।
हम इसे उखाड़ फेंकेंगे दुष्ट दाँत की तरह
जो अब तक इंसान के दिल को कुतरता आया है
लेकिन मैं तुम्हें
इससे भयभीत नहीं देखना चाहता ।
अगर मेरी ग़लती से
यह तुम्हारे घर में दाख़िल होती है
अगर ग़रीबी
तुम्हारे सुनहरे जूते परे खींच ले जाती है,
उसे परे न खींचने दो अपनी हँसी
जो मेरी ज़िन्दगी की रोटी है ।
अगर तुम भाड़ा नहीं चुका सकतीं
काम की तलाश में निकल पड़ो
गरबीले डग भरती,
और याद रखो, मेरे प्यार, कि
मैं तुम्हारी निगरानी पर हूँ
और इकट्ठे हम
सबसे बड़ी दौलत हैं
धरती पर जो शायद ही कभी
इकट्ठा की जा पाई हो ।
पाब्लो नेरुदा
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