केव्स मन्चार पर हम हमेशा आस पास और सामाजिक विडंबनाओं की बात करते हैं, सरोकार जो जुड़े हैं हमसे और बातें जो हम पर असर डालती हैं। आज जिस तरह के झगडे हमारे बीच और जिस तरह के मतभेद हैं उन पर एक सरदार अंजुम की ग़ज़ल पढ़ी जो मुझे तो बेहद पसंद आई, उम्मीद है आपको भी पसंद आएगी।इक आँगन की मिट्टी है
तेरा मेरा झगड़ा क्या जब इक आँगन की मिट्टी है
अपने बदन को देख ले छूकर मेरे बदन की मिट्टी है
भूखी प्यासी भटक रही है दिल में कहीं उम्मीद् लिये
हम और तुम जिस में खाते थे उस बर्तन की मिट्टी है
ग़ैरों ने कुछ् ख़्वाब दिखाकर नींद चुरा ली आँखों से
लोरी दे दे हार गई जो घर आँगन की मिट्टी है
लोरी दे दे हार गई जो घर आँगन की मिट्टी है
सोच समझकर तुम ने जिस के सभी घरोन्दे तोड़ दिये
अपने साथ जो खेल रहा था उस बचपन की मिट्टी है
चल नफ़रत को छोड़ के 'अंजुम' दिल के रिश्ते जोड़ के 'अंजुम'
इस मिट्टी का क़र्ज़ उतारें अपने वतन की मिट्टी है
सरदार अंजुम
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