हाल ही में महिला दिवस और होली एक साथ बीते हैं, महिला दिवस पर आम महिला की मुक्ति के गीत गाये गए ....मैंने भी गाये और फिर जब होली पर घर गया तो माँ के साथ बैठकर पापड भी बनाए पर दरअसल पापड और महिला मुक्ति के बीच का अंतर्संबंध आज एक न्यूज़ एजेन्सी की फीड देखकर ज्ञात हुआ। वस्तुतः हुआ यह कि आज श्री महिला गृह उद्योग या यूँ कहें कि लिज्जत पापड की स्वर्ण जयंती है यानी कि इस लघु उद्योग (जो अब वृहत रूप ले चुका है) को शुरू हुए ५० साल पूरे हो गए। अब उससे से भी बड़ा विषय है कि पापड और महिला मुक्ति का क्या सम्बन्ध है तो बताता चलूँ कि इस उद्योग की स्थापना मुंबई की ७ झुग्गी में रहने वाली महिलाओं ने आत्मनिर्भर होने की कोशिश में की थी, जो आज हर वर्ष करीब ५०० करोड़ रुपये का व्यवसाय करती है।
आज से पचास साल पहले मुंबई के मध्य वर्ग की ७ अनपढ़ स्त्रियों ने एक इमारत की छत पर ८० रुपये के क़र्ज़ से पापड़ बेलना शुरू किया और आज तमाम महिलाएं जो ज़िन्दगी की जद्दोजहद के पापड बेल कर निराश थी इन्ही पापडो के सहारे जीवन यापन कर रही हैं। जैसा कि जस्वन्तीबेन पोपट जो इस समूह की अकेली जीवित सदस्य हैं कहती हैं, " घर के पुरूष काम पर चले जाते थे और बच्चे स्कूल। घर के काम पूरे कर लेने के बाद हम दिन भर खाली रहते थे , धनी औरतों की तरह शोपिंग या किटी पार्टी नहीं कर सकते थे। तब हमें पापड बनाने का विचार आया।"
इन सात औरतों ने मिलकर अपनी इमारत की छत पर उधार लिए गए अस्सी रुपये से पहली बार यह सपना पैदा हुआ और आज यह इस विरत रूप में है कि ये पापड ही नहीं मसाले और डिटर्जेंट जैसे तमाम उत्पाद बनाता है। श्री महिला गृह उद्योग का व्यापार ७० देशों में है और ४४,०० महिलाएं इससे रोज़गार पा रही हैं। यह बधाई का अवसर है कि इन महिलाओं को, इस उद्यम को और इसके लिए तय किए गए रास्ते और संघर्ष को सलाम किया जाए पर मुद्दा दरअसल यहीं ख़त्म नहीं हो जाता।
क्या जिस तरह देश में हम महिला दिवस जैसे प्रतीक रूपों को मनाते और महिमा मंडन करते हैं वो सार्थक है जब तक हम केवल शहरों में ही कैद रहे, क्या हम वाकई उन महिलाओं को इस महिला मुक्ति के आडम्बर में शामिल करते हैं जो सच में हाशिये पर पड़ी हैं ? सवाल यह है कि कब तक महिला उत्थान की बातें केवल छद्म सोश्लाइट्स के मुंह से झरती रहेंगी, वे लोग जो झुग्गियों के पास से गुज़रते पर नाक पर रूमाल चढा लेते हैं, जिनके घरों में महिला नौकरानियों पर ज़ुल्म ही नहीं ढाते बल्कि छोटी छोटी बच्चियों से बाल श्रम कराते हैं, एक दिन एक जलसा कर के देश की महिलाओं की मुक्ति की घोषणा कर देते हैं। क्या यही है तरीका महिला मुक्ति का ......आज का दिन कई सवाल छोड़ जाता है और शायद एक रास्ता भी सुझाता है कि महिलाओं की आज़ादी के वैकल्पिक रास्ते खोजने होंगे ....लिज्जत और श्री महिला गृह उद्योग एक रास्ता हो सकता है....प्रेरणा भी !
aapki soch, nazar,likhne ka dilchasp andaz hi apko bhid se alag kar deti hai. bahut badiya lekh hai.
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