महिला दिवस पर अगली कड़ी में हैं मेरे घनिष्ठ मित्र मयंक प्रताप सिंह के ब्लॉग से साभार ली गई कविता.....यह कविता अचानक एक दिन मैंने पढ़ी और शायद अब तक ऐसी कविता नहीं पढ़ी.....नारी के माँ के सबसे महान रूप को समर्पित कविता कहीं ना कहीं मर्म को ज़रूर छुएगी,वो बूढ़ी सी अम्मा
वो बूढ़ी सी अम्मा
गोरी से पीली
पीली से काली
हो गई हैं अम्मा
इक दिन मैंने देखा
सचमुच बूढ़ी हो गई है अम्मा।
कुछ बादल बेटे ने लूटे
कुछ हरियाली बेटी ने
एक नदी थी
कहां खो गई
रेती हो गई हैं अम्मा
देख लिया है सोना चांदी
जब से उसके बक्से में
तब से बेटों की नजरों
अच्छी हो गई हैं अम्मा।
कल तक अम्मा अम्मा कहते
फिरते थे जिसके पीछे
आज उन्हीं बच्चों के आगे
बच्ची हो गई है अम्मा।
घर के हर इक फर्द की आँखों में
दौलत का चश्मा हैं
सबको दिखता वक्त कीमती
सस्ती हो गई अम्मा।
बोझ समझते थे सब
भारी लगती थी लेकिन जब से
अपने सर का साया समझा
हल्की हो गई अम्मा।
(ये कविता आप मयंक के ब्लॉग आजफिर पर भी पढ़ सकते हैं। मयंक आई बी एन सेवेन में कार्यरत हैं।)
बहुत अच्छी रचना है ... बधाई।
ReplyDeleteसशक्त रचना के प्रस्तुतिकरण की बधाई
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कविता..
ReplyDeleteपता नहिं क्यों, पर अम्मा-माँ पर लिखी हर कविता अच्छी लगती है।
अम्मा पर तीन साल पहले मैने एक कविता पोस्ट की थी...
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है