क्या कहू की स्त्री क्या है? चीज है, वस्तु है या इन्सान। जिसमे जान बसती है, जिसके पास एक दिमाग भी है, लेकिन उसको बंद कर दिया गया। या यो कहे कि उस पर हुक्म सिर्फ मर्दों का चलता है, तो ग़लत न होगा स्थिति इतनी बदतर है कि क्या कहे? कूपमंडूक बन चुकी है, ख़ुद के आस्तित्व के बारे में नही जानती। कौन हैं वो? क्यूँ है? इस आधुनिकता ने भी खूब भुनाया है स्त्रियों को। लड़कियों से ही ये देखने और सुनाने को मिल जाएगा कि वो बदल गई है किसी से कम नही है, लड़को के बराबरी पर आ गई है। इसमे कितनी सच्चाई है, देखकर बड़ा दुःख होता है। क्या आज भी लड़किया अपने हक को जानती है या लड़को ने उन्हें बराबरी का दर्जा दे दिया है। कितना बड़ा ये भुलावा है। इस भुलावे में ही स्त्रियों को छला जा रहा है। छल उसकी कोमल देह और मन का है। आज भी पुरूष जाति स्त्री को सिर्फ कामापूर्ति की वस्तु समझता है। मजे लेने की चीज है। ऐसा लगता है की विचार, मानसिकता,और गंदे होते जा रहे है। ये ऐवे ही नही कहा जा रहा है। आज ये नवजवान युवक-युवतियों की हरकतों में देखा जा सकता है । बात बड़े छोटे स्तर से शुरू किया जाए- हाथ मिलाने से। जब लड़के, लड़कियों से हाथ मिलते है, तो क्या उसमे सम्मान या बराबरी का भावः होता है? उस वक्त उनकी क्या इच्छा होती है, कहने की जरुरत नही है। फिर धीरे-धीरे जान-पहचान। इस जान-पहचान को लोग दोस्ती का नाम देने लगते है। इस शब्द को भी गन्दा कर दिया है। और ये जान-पहचान भी इच्छापूर्ति का मध्यम कब बन जाती है पता ही नही चलता। हलाकि लड़किया भी "सब चलता है " के के भवर में फसी है। palhi bar तो उन्हें पता ही नही चलता कि क्या हो रहा है? इस आधुनिक होने के चक्कर में धरा-पकड़ी सब jayaj है। इस तरह के रिश्ते का भी भूमंडलीकरण हो चुका है। ये फंद उन्हें पंगु बना देता है। उन्हें अब निर्बल और असहाय भी कह सकते है। माँ-पापा के सपने तो तेल लेने चले जाते है । इससे स्त्रियों को उनकी औकात बता दी जाती है। इस स्थिति के लिए तो शब्द ही नही मिलते। कैसे कहे कि ये भी इन्सान है। अगर इस फंद से कोई बची, जिसमे जल्दी सफलता पाने की भूख है, वो भी शाट-कट के चक्कर में ख़ुद को गवा बैठती है। इस होडाहोडी और बराबरी के मायाजाल में फंसकर लड़किया अपने पाव पर कुल्हाडी मर रही है। पुरूष इस भोलेपन या कहे पागलपन का फायदा उठता रहता है। घरेलू स्त्रियों की बात ही छोडिये, उन्हें बंधुवा मजदूरिनी से ज़्यादा नही समझा जाता। इस पर राष्ट्रीय महिला आयोग ने अपनी रिपोर्ट भी पेश की है। जिसमे कहा गया है की हर एक घंटे में महिलाओ को तडपा -तडपाकर मारा जा रहा है। और हर २९ वे मिनट पर एक बलात्कार का नगा नाच खेला जा रहा है। बलात्कार मतलब ही स्त्री को बलपूर्वक नोचना है। कितना घिनौना है? इस तांडव के वक्त पुरूष वहशी दरिंदा बन जाता है और स्त्री बस छटपटाती, चीखती, चिलाती रहती है। कुछ नही कर सकती। बस ख़ुद को लुटता हुआ देख सकती है। इस कुछ न कर पाने के पीछे सबसे बड़ा फैक्टर ये है की लड़की को जन्म से ही सीखा दिया जाता है की वो"लड़की है" मतलब हर काम नही कर सकती, आजाद प्राणी नही है, शुरू से ही समाज की सच्चाई से अनजान रहती है। इसके बरक्स लड़के उनको हर सुविधा, आज़ादी है, समाज उन्ही का है, जो मन आए वो करें। खुदा ने भी जब इन्सान के दो स्वरुप बनाये होगे तो ये न सोचा होगा कि एक के सर दुनिया का ताज होगा तो दूसरी उसका ही गुलाम बनेगी।
नेहा गुप्ता
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