कल ईद थी और संयोग रहा की साथ ही गांधी जयंती भी......पर माहौल कुछ अजीब रहा। हालांकि पिछले करीब ३ साल से लखनऊ से दूर हूँ पर क्जिसी न किसी तरह ईद मना लेता था उअर गांधी जयंती पर भी कोई न कोई समारोह में शामिल हो ही जाता था पर इस बार कुछ सही नही था। अजीब सा माहौल था दिल के भीतर भी और बदन के बाहर भी और शायद इसीलिए कल इतना महत्वपूर्ण दिन होने पर भी कोई पोस्ट नहीं लिख पाया।
खैर उसके लिए माफ़ी पर जब मन न हो तो न लिखना ही बेहतर ....... आप बताएं किजब रोज़ के धमाकों में इतने लोग मर रहे हो ! मुल्क में अमां का माहौल न हो.......हिन्दू और मुस्लिम के बीच की खाई बढती जा रही हो और गांधी के तथाकथित उत्तराधिकारी सत्ता के मज़े लूटते नीरो बने हो तब ...........................किस दिल से ईद मनाई जाए और किस तरह से गांधी जयंती ?
खैर मैंने कुछ न लिखने की धृष्टता की इस के लिए मेरे पास कई मेल, एस एम् एस और फ़ोन आ चुके हैं सो मुझे माफ़ करें पर लिखा तो आपने भी कुछ नही केव्स संचार पर ? चलिए माना मैंने कल इन सब घटनाओं से व्यथित हो कर लेखन से और बधाई देने का बहिष्कार किया था पर आज मान लेते हैं कि हमने देश भर में हुई आतंकवादी घटनाओं के शहीदों और मृतकों को श्रद्धांजलि देने के लिए एक दिन का मौन रखा था ............
तो साथियों चलें थोड़ी ( थोड़ी ज्यादा ) देर से ही सही पर गांधी जयंती और ईद के बधाई और कुछ आशार ....
ईद पर एक कविता ( साभार : हिंद युग्म )
कुदरत का ये करिश्मा भी क्या बे-मिसाल है
चेहरे सफ़ेद काले लहू सबका लाल है
हिंदू यहाँ है कोई मुसलमान है कोई
कितना फरेबकार ये मज़हब का जाल है
हिंदू से हो सके न मुसलमां की एकता
दूरी बनी रहे ये सियासत की चाल है
धरती पे आदमी ने बसाई है बस्तियां
इंसानियत का आज भी जग में अकाल है
दिन ईद का है आ के गले से लगा मुझे
होली पे जैसे तू मुझे मलता गुलाल है
जगदीश रावतानी
बापू के प्रति
सोहनलाल द्विवेदी की यह कविता मैंने बरसों पहले अपनी हिन्दी की पाठ्य पुस्तक में पढ़ी थी ...... काफ़ी छोटा था पर आजतक यह दिल के काफ़ी करीब है इसीलिए याद रह गई.....
चल पङे जिधर दो डग, मग में
चल पङे कोटि पग उसी ओर;
पङ गई जिधर भी एक दृष्टि
पङ गये कोटि दृग उसी ओर,
उसके शिर पर निज धरा हाथ
उसके शिर रक्षक कोटि हाथ,
जिस पर निज मस्तक झुका दिया
झुक गये उसी पर कोटि माथ;
हे कोटिचरण, हे कोटिबाहु!
हे कोटिरूप, हे कोटिनाम!
तुम एकमूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि
हे कोटिमूर्ति, तुमको प्रणाम!
युग बढा तुम्हारी हंसी देख
युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,
तुम अचल मेखला बन भू की
खींचते काल पर अमिट रेख;
तुम बोल उठे, युग बोल उठा,
तुम मौन बने, युग मौन बना,
कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर
युगकर्म जगा, युगकर्म तना;
युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक,
युग-संचालक, हे युगाधार!
युग-निर्माता, युग-मूर्ति! तुम्हें
युग-युग तक युग का नमस्कार!
अंत में एक बार फिर कि अब ज़रा सोचना शुरू करें ............
sunder
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